“सुगम-श्राद्ध-विधि” 1 ।। जय जय दयानन्द ।। आनन्दमयी श्यामा ।। जय जय सम्पदानन्द ।। एक ही कलेवर में वाजसनेयी व छन्दोग पंचदान “आद्ध-पद्धति' मिथिलादेशीय सुगम-श्राद्ध-विधि पं0 दिगम्बर झा ह. : 9279259790 email : jyotirlok108@gmail.com मूल्य : 125/ “सुगम-श्राद्ध-विधि” 2 सम्पादक वितरक प्रकाशक पं0 दिगम्बर झा श्री विनोद झा प्रज्ञा प्रकाशन रजौड़ा, बेगूसराय, बिहार रजौड़ा, बेगूसराय रजौड़ा 851131 . 8678061817 बेगूसराय 09279259790 jyotirlok108@gmail.com प्रथम संस्करण : 2014 ई0. द्वितीय संस्करण : 2016 ई0. © सर्वाधिकार प्रकाशकाधीन “सुगम-श्राद्ध-विधि” 3 “ आत्म-निवेदन ” श्रद्धा-सुमन के साथ विद्वानों के लिए एक ही कलेवर में छन्दोगी व वाजसनेयी श्राद्ध-पद्धति (अपात्रक) का द्वितीय संस्करण निवेदित करते हुए मैं अपार आनन्द की अनुभूति कर रहा हूँ । प्रस्तुत सुगम-श्राद्ध-विधि' में मंत्रादि की शुद्धि का प्रयास रखते हुए सपिण्डनश्राद्ध में वाक्यांतर किया गया है । पितामह-प्रपितामह व वृद्धप्रपितामह के लिए जहां अन्य पद्धतियों में अलग-अलग आसन-अर्ध्यादि उत्सर्ग वाक्य पाया जाता है वहीं इन तीनों के लिए प्रस्तुत पद्धति में एक वाक्य-प्रयोग पूर्वक आसनार्घ्यादि उत्सर्ग विधि दी गई है, क्योंकि व्यवहार में बहुवचन पूर्वक ही (एक वाक्य पूर्वक) उत्सर्ग कराते देखा जा रहा है । आशा है कि इस पद्धति से विद्वद्नन ही नहीं अपितु सामान्य ज्ञानवान पुरोहित भी इस विधि का प्रयोग और अधिक सहजता से कर पाएंगे। साथ ही उत्सर्ग वाक्य रचना के अतिविस्तार को कम करते हुए व्यवहार व समयानुकूल बनाने का भी प्रयास किया गया है । पद्धति में जहां “संध्या-विधि’ , 'संक्षिप्त-तपर्ण-विधिः के साथ “पंचदेवता एवं विष्णु पूजन? को समाहित किया गया है वहीं कालोचित नहीं होने के कारण वृषोत्सर्ग को समाहित नहीं किया जा रहा हजिसका खेद भी है, तथापि पंचकदाह एवं पंचकमरण शांति, सांवत्सरिक एकोदिष्ट (वर्ष) विधि आदि समाहित किया गया है । प्रायः देखा जाता है कि पिता, माता, भाई का श्राद्ध तो सहजता से करा देते हैं “सुगम-श्राद्ध-विधि” 4 पर पितृव्य (चाचा) पितामह, पत्नी आदि के श्राद्ध में अच्छे-अच्छे प्रतिष्ठित पंडित भी सर्वत्र एक ही विभक्ति का प्रयोग करते हैं; यथा - पितृव्य, पितामह, पत्नी आदि। इसी कारण प्रस्तुत पुस्तक में पिता, माता, चाचा पत्नी, बाबा, मामा, पति, गरु, भाई आदि के श्राद्ध में विभक्ति-प्रयोगार्थ सुलभता हेतु सारणी दिया गया है जिससे सामान्य पुरोहित भी श्राद्ध कराने में सहजता का अनुभव करेंगे । पुस्तक का आकार छोटा करने के क्रम में एकादशाह को किये जाने वाले आद्य श्राद्ध एवं द्वादशाह को किये जाने वाले षोडश मासिक श्राद्ध एकीकृत करके दिये गए हैं कारण कि मासिक श्राद्ध की अपेक्षा आद्य श्राद्ध में किंचित अंतर ही पाया जाता है । एक अच्छे शिक्षित ब्राह्मण को श्राद्ध कराने के लिए 15-20 श्राद्धों में प्रशिक्षण की जरूरत परती है । इस कारण मेरा प्रयास यह रहा है कि इस पुस्तक के माध्यम से श्राद्ध कराने के लिए सामान्य साक्षर पुरोहितों को भी मात्र 3-5 श्राद्ध में प्रशिक्षण लेना परे । यह कार्य तो मेरे लिए अतिदुरुह था पर गुरुजनों के आशीर्वाद और विद्वानों के मार्गदर्शन से पुस्तक को एक सुव्यवस्थित कलेवर में प्रस्तुत कर पाया । मार्गदर्शक विद्वानों में महारथपुर निवासी श्री कृष्णमोहन झा का विशेष सहयोग प्राप्त हुआ जिनका आभार शब्दों से व्यक्त नहीं किया जा सकता । इनके संशोधन से ही पद्धति सुसंस्कृत हो पायी । श्री सुखदेव पाठक (पिपड़ा), श्री श्यामनारायण झा (रुदौली), श्री ताराकान्त झा (छतीना), स्व0 सदानन्द झा (पहसारा), स्व0 उगनदेव मिश्र (रजौड़ा), श्री सुरेन्द्र झा (पवड़ा), श्री शिवेश पाठक (वन्दार) आदि अनेक विद्वानों का सुझाव प्राप्त हुआ । “सुगम-श्राद्ध-विधि” 5 सबसे अंत में श्री अजय मिश्र (संपादक-वैदेही पंचांग) का विशेष आभारी हूं जिन्होंने पुस्तक प्रकाशन में बहुत ही सहयोग किया | विद्वानों से निवेदन है कि मेरे अल्प-ज्ञान, टंकण-दोष आदि अनेक कारणों से जो अशुद्धियां होंगी उनमें सुधार कर प्रयोग करेंगे व अगले संस्करण में सुधारार्थ हमें अवगत भी करेंगे । गच्छतः स्खलनं क्वापि भवत्येव प्रमादतः। हसन्ति दुर्जनास्तत्र समादधति सज्जनाः।। रजौड़ा, बेगूसराय, बिहार, 851131 . पं0 दिगम्बर झा मो0 : 9279259790 “सुगम-श्राद्ध-विधि” विषय सूचि पृष्ठ - श्राद्ध विषयक कुछ 10. श्राद्ध जिज्ञासा 19. वाजसनेयि सपिण्डन विशेष तथ्य 11. संध्या विधि श्राद्ध 73 . वैतरणी दान 12 .संक्षिप्त संध्या विधि 20. छन्दोगी अपात्रक आद्य . अशीच निर्णय 13.वाजसनेयि तर्पण विधि व मासिक श्राद्ध विधि . दाह-संस्कार 14. छन्दोग तर्पण विधि 21. सपिण्डन श्राद्ध . घटदान विधि 15. पंचदेवता एवं विष्णु छन्दोग . दशगात्र पिण्डदान पूजन 22. सामान्योत्सर्गविधि 125 . तैल खल्ली दान मंत्र 16. पंचदान 54 23. द्रव्यदेवता कथन 132 . सौरि-सूर्य-कुज वार-क्षीर 17. दिग्रक्षण मंत्र 60 24. पुरुष सुक्त 133 दोष शान्ति मंत्र 32 18. वाजसनेयि अपात्रक आद्य 25. रुद्र सूक्त 135 विभक्ति बोध सारणी 33 व मासिक श्राद्ध विधि 61 26. शास्त्र और व्यवहार 140 “सुगम-श्राद्ध-विधि” 7 जन्म तिथि :- 12/09/1962 ई0. क पुण्य तिथि :- 14/03/2011 ई0. पं0 पारसनाथ झा “मणि! तृतीय वर्षी : फाल्गुन शुक्ल नवमी (सोमवार) तदनुसार दिनांक : 10103 (2014 जिनके असामयिक देहावसान से बेगूसराय के विद्वत्समाज को अपूरणीय क्षति हुई हैं उन स्वर्गवासी पितृव्य की पावन स्मृत्ति के अवसर पर यह पुस्तक प्रकाशित करते हुए उन्हीं को समर्पित करता हूँ । वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपरानि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यऽन्यानि संयाति नवानि देही ।। “सुगम-श्राद्ध-विधि” 8 श्राद्ध विषयक कुछ विशेष तथ्य “ पितरो वाक्यमिच्छन्ति भावमिच्छन्ति देवताः ” अर्थात्‌ पितर सुसंस्कृत वाक्य रूपी मंत्र द्वारा प्रदत्त अन्नादि ही ग्रहण कर पाते हैं व प्रसन्न होकर आर्शीवाद प्रदान करते हैं । देवता मंत्र शुद्धता की अपेक्षा भाव के अनुसार नैवेद्यादि ग्रहण करते हैं । प्रायः देखा जा रहा है कि उत्कृष्ट रूप से श्राद्ध करने वाले श्राद्धकर्ता भी वाक्याशुद्धता का आश्रय लेने को विवश रहते हैं । पितृकर्म में शुद्ध वाक्योच्चारण करने व कराने वाले ब्राह्मणों की कमी के कारण भी ऐसा हो रहा है। बहुत विद्वान स्वयं तो शुद्ध उच्चारण करते हैं पर यजमान से नहीं करा पाते, अथवा मंत्रान्त के वर्ण या शब्दादि का लोप कर देते हैं, तो बहुत विद्वान वृद्धावस्था के कारण शुद्ध उच्चारण करने में असमर्थ हो जाते हैं यथा :- राम का आम स्वधा का सुधा, विष्णु का विषुण, सत्यनारायणाय का सत्यनारनाय आदि । ऐसे कर्मकाण्डि सम्मानित ब्राह्मणों को स्वतः श्राद्ध-कर्म से संन्यास ले लेना चाहिए । “मूर्खों वदति विष्णाय विज्ञो वदति विष्णवे । द्वयोरपि समं पुण्यं भावग्राही जनार्दनः ।।” अर्थात्‌ मूर्ख रामाय, शिवाय आदि का अनुसरण कर यदि विष्णाय कहकर भी पूजन-जपादि करे तो भी कोई दोष न होकर विष्णवे कहने के तुल्य ही पुण्य की प्राप्ति होगी, क्योंकि भगवान तो भाव मात्र ही ग्रहण करते हैं :- भावग्राही जनार्दनः, भावमिच्छन्ति देवताः, भावो हि विद्यते देवः , सांवरिया भाव का भूखा आदि । पर पितृकर्म में यह दोष त्याज्य नहीं माना गया है कारण कि :- पितरो वाक्यमिच्छन्ति । श्राद्ध :- पितरों के निमित्त श्रद्धा पूर्वक किया जाने वाला होम, पिण्डदान, ब्राह्मण भोजनादि श्राद्ध कहलाता है । “सुगम-श्राद्ध-विधि” 9 होमश्च पिण्डदानश्व तथा ब्राह्मणभोजनम्‌ । श्राद्ध शब्दाभिधेयं स्यादेकस्मिन्नीपचारिके।। हेमाद्रि संस्कृतं व्यञ्जनाद्यं च पयोमधु घृतान्वितम्‌ । श्रद्धया दीयते यस्माच्छाद्धं तेन निगद्यते ।। बृहस्पति देशेकाले च पात्रे च श्रद्धयाविधिना च यत्‌ । पितुनुद्दिश्य विप्रेभ्यो दत्तं श्राद्मुदाहृतम्‌।। ब्रह्मांडपुराण अतः श्राद्ध में मंत्र की शुद्धता के साथ श्रद्धा भी अनिवार्य है । पंच श्राद्ध :- नित्यं नैमित्तिकं काम्यं वृद्धिश्राद्धं तथैव च। पार्वणं चेति मनुना द्धं पञ्चविधं स्मृतम्‌ ।। आद स्थान :- गंगातीरे तु सम्प्राप्ते इन्दोः कोटी रवेर्दश । मत्स्यपुराण धात्रीबिल्ववटाऽशवत्थ मुनिचैत्यगजान्विताः । श्राद्धं छायासु कर्तव्यं प्रासादादौ महावने ॥ प्रजापति वाराणस्यां यवाधिक्यं समन्ताद्योजनत्रयम्‌ । यत्किंचित्‌ पैतृकं कुर्यात्‌ सपिण्डं वा तदन्तिके ।। रुद्रलोकं स गच्छेत्तु लभते शाश्वतं पदम्‌ ।। पद्म पुराण श्राद्ध और सूतक :- व्रत यज्ञ विवाहेषु द्धे होमार्चने तथा । आरब्धे सूतकं न स्यादनारब्धे तु सूतकम्‌ ।। आरम्भो वरणं यज्ञे संकल्पो व्रतजापयोः। नान्दीश्राद्धं विवाहादौ श्राद्धे पाकपरिक्रिया ।। ताम्बूलं दन्तकाष्ठं च स्नेहं स्नानमभोजनम्‌ । रत्यौषधपरात्रानि श्राद्ध कर्ता विवर्जयेत्‌ ।। जाबालि आशीर्वादं देवपूजां प्रत्युत्थानाऽभिवादनम्‌ । पर्यंके शयनं स्पर्श न कुर्यान्मृतसूतके ।। गरुडपुराण “सुगम-श्राद्ध-विधि” 10 किसी वस्तु को रखने का बरतन आदि । महापात्र - प्रेत और पितरों के निमित्त अन्न, वस्त्र, गौ, भमि इत्यादि जिस पात्र में रखा (जिसको दिया) जाय वह महापात्र कहलाता है । सपात्रक श्राद्ध- जिस श्राद्ध में प्रेत प्रतिनिधित्व पूर्वक महापात्र (ब्राह्मण) अर्घ्य-अन्नादि ग्रहण करें वह सपात्रक श्राद्ध कहलाता है। अपात्रक श्राद्ध- जिस श्राद्ध में प्रेत का प्रतिनिधित्व महापात्र (ब्राह्मण) न करे बल्कि कुश रूपेण हो, अर्थात्‌ प्रेत-प्रतिनिधित्व में पात्र का अभाव हो वह अपात्रक श्राद्ध कहलाता है । त्रीणि श्राद्धे पवित्राणि दौहित्रः कुतपस्तिला:। रजतस्य तथा दानं कथा संकीर्तनादिकम्‌ ।। वि.पु. 3। 161 52 दौहित्र (नाती), कुतप (दिन का आठवां मुहूर्त 11:36 - 12:24 बजे तक सामान्यतः ) और तिल ये तीन तथा चांदी का दान या चर्चा ये सब श्राद्धकाल में पवित्र माने गए हैं । वर्ज्यानि कुर्वता आदं क्रोधोऽध्वगमनं त्वरा । भोक्तुरप्यत्र राजेनद्र त्रयमेतन्न शस्यते ।। वि.पु. 3। 161 53 श्राद्ध कर्ता के लिए क्रोध, मार्गगमन और उतावलापन (जल्दीबाजी) ये तीनों वर्जित है । साथ ही श्राद्ध में भोजन करने वालों के लिए भी ये तीनों वर्जित है। म्लेच्छदेशे तथा रात्री सन्ध्यायां विप्रवर्जिते । न श्राद्धमाचरेद्विद्वान्‌ न चाकाशे कथञ्चन ।। दिवोदास इस श्लोक में रात्रि काल में श्राद्ध करने का निषेध पाये जाने के कारण कुछ व्यावहारिक कठिनाई देखी जाती है। कुछ विद्वान रात्रि निषेध का उक्त प्रमाण देकर सूर्यास्त पूर्व ही श्राद्ध-सम्पन्न करने के लिए विधि का लोप करते हुए अति संक्षेपीकरण करते हैं । “सुगम-श्राद्ध-विधि” 11 रात्री प्रहर पर्यन्तं दिवाकृत्यानि कारयेत्‌ । ब्रह्मयज्ञं च क्षौरं च वर्जयित्वा विशेषतः ।। संग्रह वहीं कुछ दीर्घसूत्री विद्वान इस प्रमाण से श्राद्ध में अत्यधिक विलम्ब करते हैं, कि दिन में कर्तव्य समस्त कर्म रात के प्रथम प्रहर में किया जा सकता है । 3 घण्टे का एक प्रहर होता है, अतः सूर्यास्त के बाद भी तीन घण्टे तक किया जा सकता है, सो यह भी अनुचित ही है । श्लोक का अर्थ यह है कि यदि प्रमादादि के कारण बिलम्व हो तो रात्रि के प्रथम प्रहर तक श्राद्धादि किया जा सकता है न कि जानबूझ कर प्रमाण का आधार लेकर रात करना चाहिए । और न ही सूर्यास्त पूर्व समाप्त करने के लिए विधि-लोप-पूर्वक (अति संक्षेप) करना चाहिए । सूर्यास्त पूर्व सपिण्डीश्राद्ध का प्रयास करना चाहिए यदि न हो सके तो भी अति संक्षेप नहीं करना चाहिए । रक्षा-दीप कहां जलाना चाहिए ? यह प्रश्‍न उतना विवादास्पद नहीं है जितना विवाद पाया जाता है । व्यवहार में बहुधा देखा जा रहा है कि विद्वानों द्वारा भी रक्षोघ्न-दीप अग्निकोण में दिलवाया जाता है। इसके पीछे तर्क यह दिया जाता है कि दीप में अग्नि होती है और अग्नि का संबंध अग्निकोण से है, अतः रक्षोघ्न दीप अग्नि कोण में ही देना चाहिए । लेकिन यह तर्क उचित नहीं है। यदि अग्नि से संबंधित सभी क्रियायें अग्निकोण में ही होना चाहिए, तो एक-कुण्डीय यज्ञा में हवन-कुण्ड अग्निकोण में ही बनाया जाता। पर ऐसा विधान नहीं है, जिससे रक्षोघ्नदीप के अग्नि संबंधवश अग्निकोण में जलाने का प्रसेक तर्क पूर्णतः अप्रामाणिक हो जाता है । प्रथम बिंदु यह है कि वह दीप किससे संबन्धित है ? निश्चय ही प्रेत से संबन्धित है । जिस कारण दीपक की लौ दक्षिण ही किया जाता है । जब प्रेत संबंधित सभी क्रियायें “सुगम-श्राद्ध-विधि” 12 दक्षिण दिशापरक है व दीप भी दक्षिणाभिमुख ही है तो निश्‍चय ही वह दीप दक्षिण दिशा में देना चाहिए न कि अग्निकोण में । दूसरा आधार ये है कि यज्ञों में विघ्न करने वाले कौन हैं व किस दिशा से विघ्न उपस्थित करते हैं ? यज्ञों में विघ्न करने वाले प्रेत-पिशाच-राक्षसादि दक्षिण दिशा से आते हैं चाहे वह देव यज्ञ हो या पितृ यज्ञ । इसी कारण देव यज्ञों में यज्ञ रक्षा-वास्ते ब्रह्मा की स्थापना दक्षिण दिशा में की जाती है । दक्षिणे दानवाः प्रोक्ताः पिशाचोरगराक्षसाः । तेषां संरक्षणार्थाय ब्रह्मा तिष्ठति दक्षिणे ।। कारिका अतः यह स्पष्ट हो जाता है कि यदि पितृ-यज्ञ की रक्षा वास्ते दीप दिया जाता है तो वह दक्षिण दिशा में ही देना चाहिए न कि अग्निकोण में । अथवा दक्षिण व नैऋत्य कोण के मध्य में भी दिया जा सकता है कारण कि यमपुरी में यम का भवन दक्षिण दिशा व नैक्रत्य कोण के मध्य में है । पर अग्नि कोण में रक्षादीप देने का कोई ठोस आधार नहीं मिलता । सपिण्डन-श्राद्ध में आसन के क्रम पर विवाद देखा जाता है । एक मत :- पश्चिम से पूर्व की ओर विश्वेदेव, पितामह, प्रपितामह वृद्धप्रपितामह और प्रेत । दूसरा मत :- पश्चिम से पूर्व की ओर विश्वेदेव, प्रेत, पितामह, प्रपितामह, वृद्धप्रपितामह । आदौदेवः ततो प्रेतः पितरस्तदनन्तरम्‌ । पश्चिमो भागमारभ्य ततः पूर्वे समापयेत्‌ ।। प्रेतमंजरी तर्पण में आसुरि के बारे में कुछ विवाद पाया जाता है । कुछ विद्वान कपिलश्च सुरश्वैव कहते हैं, जो कि पूर्णतः अनुचित है । आसुरि नामक ऋषि का वर्णन श्रीमद्रागवत, ब्रह्मवैवर्ततादि पुराण में है । महाराज युधिष्ठिर ने जब राजसूय “सुगम-श्राद्ध-विधि” 13 यज्ञ किया था तो आसुरि क्रषि भी उस यज्ञ में भाग लिए थे । श्रीमद्रागवत का श्लोक इस प्रकार है - अथर्वा कश्यपो धौम्यो रामो भार्गव आसुरिः । वीतिहोत्रो मधुच्छन्दा वीरसेनो ञ्कृतव्रणः ।। 10 74 |9 सृष्टि विस्तार प्रसंग में ब्रह्मवैवर्तपुराण में मरीच्यादि ऋषियों के साथ ही आसुरि की उत्पत्ति भी कही गई है । जब दो-तीन या अधिक करके मासिक श्राद्ध किया जाय, तो प्रत्येक मासिक का अन्न (प्रेत-भोजन) अलग-अलग दे लेकिन भूस्वामि अन्न और विकिर दान एक ही दे, मासिक संख्यानुसार नहीं । उदाहरण सपिण्डीश्राद्ध में विश्वेदेव, पितर और प्रेत सबको अन्नादि तो दिया जाता है पर भूस्वामि-अन्न व विकिर दान एक बार ही होता है । छन्दोग श्राद्ध में “ये चात्र त्वानुयाँश्च त्वमनु तस्मै ते स्वधा' (युष्मानुयाँश्च यूयमनु .... स्वधा) पद प्रयोग किया जाता है जिसका कुछ जगहों पर निषेध बतलाया गया है :- प्रेतश्राद्धे स्त्रियाश्राद्धे आदे स्त्रीकतृके तथा । सपिण्डानां तथा श्राद्धे ये चात्र त्वां’ नयोजयेत्‌।। सुमति निषिद्ध : कूष्मांडं महिषीक्षीरं आढक्यो राजसर्षपाः। चणका राजमाषाश्च घ्नन्ति श्राद्धं न संशयः।। यथा श्राद्धविधौ देवि मांसं मुख्यं प्रकीर्तितं । कलौ तु तत्िषेधं स्याद्‌ ब्राह्मणानां महेश्वरी ।। शक्ति केतकी तुलसीपत्रं बिल्वपत्रं च वर्जयेत्‌ । द्रोणं च करवीरं च धत्तूरं किंशुकं तथा ।। भविष्यपुराण त्रयोदश क्रिया : पादार्धं आसनं चार्घ्यं अर्चनं चान्रकल्पनम्‌ । अवनेजनं पिंडदानं प्रत्यवनेजनार्चनम्‌ ।। सुप्राक्ष्य दक्षिणादानं प्रच्छादीपं तु कारयेत्‌ । त्रयोदशैव कर्माणि कर्तव्यानि मनीषिभिः ।। “सुगम-श्राद्ध-विधि” 14 ।। वैतरणी-दान ।। पूर्वाभिमुख पवित्रिकरण कर त्रिकुश, तिल, जल लेकर वस्त्रादि से सुशोभित गाय पर छिड़के : ॐ (सवत्स) गव्ये नमः ।। ३।। ब्राह्मण पूजन : ॐ ब्राह्मणाय नमः ।। 3।। तिल, जल लेकर मंत्र पढते हुए ब्राह्मण को दे या कुश पर छिड़के :- ॐ इमां (सवत्सा) गवीम्‌ ददानि ।। ब्राह्मण ॐ ददस्व कहकर दान स्वीकार करे । दान कर्ता गाय को जल से सिक्त कर ये दोनों मंत्र पढ़े :- ॐ उष्णे वर्षति शीते वा मारुते वाति वा भ॒शम्‌ । दातारं त्रायते यस्मात्‌ तस्माद्‌ वैतरणी स्मृता ।। 1॥ यमद्वारे महाघोरे कृष्णा वैतरणी नदी । तां सन्त्तुं ददाम्यनां कृष्णां वैतरणीं च गाम्‌ ।। 2॥। तिल, जल लेकर गो दान करे : ॐ यमद्वारावस्थित वैतरणी नदी सन्तरणकाम इमां (सवत्सां) गवीम्‌ रुद्रदैवताम्‌ गोत्राय शर्मणे ब्राह्मणाय तुभ्यमहं सम्प्रददे ।। (यथानामगोत्राय ब्राह्मणाय अहं ददे) ब्राह्मण ॐ स्वस्ति कहें । ॐ तत्‌ सत्‌ । यजमान गाय को सिक्त करे । दक्षिणा : त्रिकुशा, तिल, जल लेकर गोदान की दक्षिणा करे :- ॐ अद्य कृतैतत्‌ (सवत्स) गवीदान प्रतिष्ठार्थं एतावत्‌ द्रव्यमूल्यकहिरण्यं अग्निदैवतं “सुगम-श्राद्ध-विधि” 15 गोत्राय ....... शर्मणे ....... ब्राह्मणाय दक्षिणांम तुभ्यमहं सम्प्रददे ।। (यथानामगोत्राय ब्राह्मणाय अहं ददे) ब्राह्मण ॐ स्वस्ति कहकर गोपुच्छ पकर कर कामस्तुति पढ़े :- ॐ को दात कस्माऽदात्‌ कामो दात्‌ कामायादात्‌ । कामोदाता कामः प्रतिगृहीता कामैतत्ते ।। (वाजसनेयि) ॐ क इदं कस्माऽदात्‌ कामायादात्‌ । कामोदाता कामः प्रतिगृहीता कामः समुद्रमाविशत्‌ कामेन त्वा प्रतिगृहूणामि कामैतत्ते ।। (छन्दोगी) ।। गोमूल्य-दान ।। पूर्वाभिमुख पवित्रिकरण कर त्रिकुश, फूल, अक्षत द्रव्य-कुश पर छिड़के :- ॐ एतावद्द्रव्यमूल्यक सवत्स गव्यै नमः ।। 3।। ब्राह्मण पूजन : ॐ ब्राह्मणाय नमः ।। 3॥। दान कर्त्ता गो मूल्य द्रव्य व कुश को जल से सिक्त कर दोनों मंत्र पढ़े :- ॐ उष्णे वर्षति शीते वा मारुते वाति वा भुशम्‌ । दातारं त्रायते यस्मात्‌ तस्माद्‌ वैतरणी स्मृता ।। यमद्वारे महाघोरे कृष्णा वैतरणी नदी । तां सन्तर्तु ददाम्यनां कृष्णां वैतरणीं च गाम्‌ ।। 1. दक्षिणाद्रव्याभाव में - ` यद्दीयमान ............. दक्षिणां दातुं अहं उत्सुज्ये ? पढ़े । “सुगम-श्राद्ध-विधि” 16 तिल, जल लेकर गो दान करे : ॐ यमद्वारावस्थित वैतरणी नदी सन्तरणकाम एतावतू द्रव्यमूल्योपकल्पितां सवत्सां गवीम्‌ रुद्र दैवताम्‌ शर्मणे ब्राह्मणाय तुभ्यमहं सम्प्रददे ।। (यथानाम गोत्राय ब्रह्मणय अहं दे) ब्राह्मण “ॐ स्वस्ति’ कहकर स्वीकार करें । “ॐ तत्‌ सतू? । गोमूल्य को सिक्त करे । दक्षिणा : त्रिकुशा, तिल, जल लेकर गोदान की दक्षिणा करे :- ॐ अद्य कृतैतत्‌ द्रव्यमूल्योपकल्पित गवीदान प्रतिष्ठार्थं एतावतू द्रव्यमूल्यकहिरण्यं अग्निदैवतं गोत्राय शर्मणे ब्राह्मणाय दक्षिणां तुभ्यमहं सम्प्रददे।। (यथानामगोत्राय ब्राह्मणाय अहं ददे) गोदानोत्सर्ग वाक्य में गवीम्‌ पर विद्वानों द्वारा कुछ आक्षेप किया गया जिसका परिहार करना आवश्यक है । गोदान में कोई एक ही शब्द गवी का प्रयोग किया गया है । गाम्‌ रुद्रदैवतां कहने पर दो शब्दरुप हो जाते हैं एक गवी और दूसरा गो । अतः गवी शब्द का ही पूर्ण प्रयोग किया गया है । समंत्र दान किये गए सभी वस्तुओं पर मात्र ब्राह्मण का ही अधिकार होता है । प्रायः देखा जा रहा है कि श्राद्ध में किये गए दान वस्तुओं के अतिरिक्त मासिक आदि में भी नाई व माली अपना हिस्सा कहकर लेने लगे हैं जो कि सर्वथा अनुचित है । ऐसी परिस्थिति में ब्राह्मण, यजमान और नाई आदि सभी दोषी हैं । नाई आदि के लिए अतिरिक्त पारिश्रमिक की व्यवस्था यजमान को करना चाहिए और श्राद्ध एवं दान की सभी वस्तुएं ब्राह्मण को ही देना चाहिए । “सुगम-श्राद्ध-विधि” 17 ।। अशौच निर्णय ।। शुद्धयेद्िप्रो दशाहेन द्वादशाहेन भूमिपः । वैश्यः पंचदशाहेन शूद्रो मासेन शुद्धयति ।। सर्वेषामेव वर्णानां सूतके मृतके तथा । दशाहाच्छुद्धिरेतेषामिति शातातपोब्रतीत्‌ ।। सन्ध्या दानं जपं होमं स्वाध्यायं पितृतर्पणं । ब्रह्मभोज्यं व्रतं नैव कर्तव्यं मृतसूतके ।। गरुड़पुराण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण हैं । इन चारों वर्णो की अशीच निवृत्ति क्रमशः - 10, 12, 15 और 30 दिनों में होती है । जन्म से छह माह तक - सद्यः शौच एवं मृत शरीर का भूमि-निक्षेप :- चारों वर्णो के लिए । 7 माह से 2 वर्ष तक क्रमशः 1, 2, 3 और 5 दिन में ब्राह्मणादि चारों वर्णो की शुद्धि व मृतशरीर का भूमि-निक्षेप । ३ - 6 वर्ष तक - 3, 6, 9 व 5 दिन में :- क्रमशः ब्रह्मणादि चारों वणौ की शुद्धि । अग्नि-संस्कार व पिण्डोदक क्रिया । 6 वर्ष से अधिक का चारों वर्णो में वर्णानुसार सम्पूर्ण अशौच, अग्नि-संस्कार व श्राद्ध । कन्यामरण में चारों वर्णो का जन्म से 2 वर्षों तक सद्यः शौच व भूमि - निक्षेप । 2 वर्ष से विवाह पर्यन्त चारों वरणो की 3 दिनों में शुद्धि व पिण्डोदक क्रिया । कन्या के विवाहोपरान्त माता-पिता की 3 दिनों में शुद्धि । पति के घर में वर्णानुसार अशौच एवं श्राद्ध । मृत दिवस निर्धारण हेतु दिन की गिनती सूर्योदय से सूर्योदय तक की जाती है । “सुगम-श्राद्ध-विधि” 18 प्रथम अशौच के पूर्वाद्ध (5, 6, 7 व 15 दिन तक : चारों वर्णों का क्रमशः) में द्वितीय अशौच होने पर पहले अशौच से शुद्धि एवं उत्तरार्द्ध ( 6, 7, 8 व 16 से 9, 11, 14 व 29 दिनों तक; चारों वर्णों का क्रमशः ) में द्वितीय अशौच होने पर द्वितीय अशौच से शुद्धि । क्षीरकर्म के दिन 56 दण्ड तक अर्थात्‌ अगले सूर्योदय से 1 घंटा 36 मिनट पहले तक द्वितीय अशौच होने पर पुनः 3 दिनों में शुद्धि । क्षीर कर्म के दिन 56 दण्ड के बाद (अगले दिन के सूर्योदय के 1 घंटा 36 मिनट पहले से) सूर्योदय तक द्वितीय अशौच होने पर पुनः अगले चार दिनों में शुद्धि । सूर्योदय के बाद अर्थात्‌ एकादशाह के दिन सूर्योदय होने के बाद द्वितीय अशौच होने पर सम्पूर्णाशौच विधि से निवृत्ति होगी। आद्यश्राद्ध का संकल्प (पाकारम्भ) हो जाने के बाद व मासिक-सपिण्डनादि के संकल्प से पूर्व द्वितीय अशौच होने पर आद्यादि संकल्पित श्राद्ध तो होंगे पर असंकल्पित श्राद्ध नहीं होगा । पुनः पूर्ण अशौचोपरांत दूसरे मृतक के एकादशाह दिन पहले मृतक का शेष मासिकादि व सपिण्डनश्राद्ध होगा । सम्पूर्णाशीच में त्रिरात्राशौच की व मरणाशौच में जननाशौच की मान्यता नहीं होती है । त्रिरात्राशौच के मध्य में द्वितीय त्रिरात्राशौच होने पर दूसरे त्रिरात्राशीच से शुद्धि होती है । येषु स्थानेषु यच्छौचं धर्माचारश्च यः स्मृतः । तत्र तावन्नावमन्येत धर्मस्तत्रैव तादृशः ।। मरीचि “सुगम-श्राद्ध-विधि” जननाशौच सूतके तु मुखंदृष्ट्वा जातस्यजनकस्ततः । कृत्वासचैलं स्नानन्तु शुद्धोभवति तत्क्षणः ।। आदित्यपुराण जननाशौच में माता दश दिन में और पिता सचैल (वस्त्र सहित) स्नान करने मात्र से तत्क्षण ही शुद्ध हो जाता है । माता के अतिरिक्त अन्य किसी को जननाशौच नहीं होता है। व्यवहार से भी यही सिद्ध होता है । सूतक होने पर चाहे जितने ही दिन में करे सारी क्रियायें व शुद्धिकरण माता ही करती है । प्रसूता स्पर्श करने वाले व प्रसूतिगृह में प्रवेश करने वालों को भी शुद्धि करना परता है । पर अन्य कोई तो सूतकांत अर्थात्‌ दशवें दिन शुद्धिकरण नहीं करते हैं । शुद्धिकरण से तात्पर्य क्षीरादि है । क्षौरादि की तो बात ही क्या है यज्ञोपवीतादि भी नहीं बदला जाता है । इससे स्पष्टतया सिद्ध हो जाता है कि व्यवहार से भी माता मात्र के लिए ही सूतक मान्य होता है। तथापि इस प्रमाणिक तथ्य एवं व्यवहार को असिद्ध करने के लिए कतिपय व्यक्ति यज्ञोपवीत बदलना आरंभ कर चुके हैं पर क्षौरकर्म को स्वीकार नहीं करते । पुनः सिद्ध होता है कि - यदि सूतक होता है तो सूतकान्त में क्षौरादि कृत्य पूर्वक सूतक की निवृत्ति करना चाहिए । यदि नहीं करते हैं तो इसका तात्पर्य यही है कि सूतक (जननाशौच) मात्र मातृ परक ही है, कुलादिपरक नहीं । मरणादेव कर्तव्यं संयोगो यस्य नाग्निना । दाहादूर्ध्वमशौचं स्याद्‌ यस्य वैतानिकोविधिः ।। शातातप जो अग्निहोत्री नहीं हैं उनके अशीच की गणना मृत्युदिन से तथा अग्निहोत्री की दाहदिवस से करनी चाहिए । “सुगम-श्राद्ध-विधि” ।। दाह-संस्कार ।। शव-दाहकर्त्ता स्नानादि कर नवीन श्वेत-वस्त्र-यज्ञोपवीत-कटिसूत्र-उत्तरीयवस्त्र आदि धारण कर ले । मृतक को दक्षिणाभिमुख बैठाकर स्वयं पूर्वाभिमुख होकर एक नये मिट्टी के पात्र में जल लेकर त्रिकुशा से जलपात्र में तीर्थो का आवाहन इन मंत्रों से करे :- ॐ गयादीनि च तीर्थानि ये च पुण्याः शिलोच्चयाः । कुरुक्षेत्रं च गंगां च यमुनां च सरिद्वराम्‌ ।। कौशिकीं चन्द्रभागां च सर्वपाप प्रणाशिनीम्‌ । भद्रावकाशां सरयूं गण्डकीं तमसां तथा ।। धैनवं च वराहं च तीर्थं पिण्डारकं तथा । पृथिव्यां यानि तीर्थानि चतुरः सागरांस्तथा ।। तीर्थावाहित जल एवं अन्य जल से मृतक को अच्छी तरह स्नान कराकर नवीन वस्त्र-यज्ञोपवीत-चंदन-गंगीट-फूल-माला आदि पहना दे । चिता पर कुश बिछाकर उत्तर सिरहाना कर मृतक को सुला दे । दक्षिणाभिमुख अपसव्य होकर बांये हाथ में जलता हुआ अंगारा लेकर नीचे का दोनों मंत्र पढ़ते हुए चिता की तीन बार परिक्रमा करे :- ॐ कृत्वा सुदुष्करं कर्म जानता वाप्यजानता । मृत्युकालवशं प्राप्तं नरं पंचत्वमागतम्‌ ।। 11 धर्माधर्म समायुक्तं लोभमोह समावृतम्‌ । दहेयंसर्वगात्राणि दिव्यान्लोकान्‌ स गच्छतु ।। 2॥। चाण्डालाग्निरेध्याग्निः सूतिकाश्च कर्हिचित्‌ । पतिताग्निश्चिताग्निश्च न शिष्टग्रहणोचितम्‌ ।। देवल अतः दाहाग्नि स्वयं ही प्रज्वलित करना चाहिए, किसी से लेना ही नहीं चाहिए । बहुत जगह डोम से अग्नि लेने की परम्परा देखी जा रही है, जो कि शास्त्रानुमोदित नहीँ है । “सुगम-श्राद्ध-विधि” 21 तीन बार चिता की परिक्रमा करके मुखाग्नि प्रदान करे । फिर अनेक पवित्र वस्तुओं लकड़ी, रूई, घी, धूप, धूना कपूर, चन्दन, लकड़ी आदि का अनिन में प्रक्षेप करते हुए शवदाह करे । जब जलते हुए शव का कपोत (कबूतर) आकार का अवशेष बचे तो चिता की सात बार परिक्रमा करते हुए प्रादेश-प्रमाण सात लकड़ी इस मंत्र से चिता में प्रक्षेप करे :- ॐ क्रव्यादाय नमस्तुभ्यं ।। गंगा तट पर शवदाह करने वाले समस्त अस्थि व चिता-भस्मादि का गंगा में ततक्षण ही उत्सर्जन कर देते है । लेकिन गंगातट से दूरस्थ समाज में अन्यत्र शवदाह होता है जहां चौथे दिन अस्थिसंचय कर अस्थि का गंगा-प्रवाह किया जाता है । कटिहारी गए हुए सभी व्यक्ति जलाशय में आकर वस्त्र-सहित एक डुबकी लगा ले । शरीर पोछे बिना ही दक्षिणाभिमुख-अपसव्य होकर बांए हाथ के अनामिका व अंगूठा से दक्षिण-दिशा में निम्न मंत्र से जल प्रदान करे :- ॐ अपनः शोशुचदघम्‌ ।। फिर सभी व्यक्ति मोड़ा, तिल, जल लेकर इस मंत्र से मृतात्मा को तिलांजलि प्रदान करें - ॐ अद्य प्रेत एष तिलतोयांजलिः ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। तिलांजलि देकर चिताभूमि से घर को प्रस्थान करे । मृतव्यक्ति के घर पर आकर निम्न मंत्रों को पढ़ कर क्रमशः लोहा, पत्थर आग और जल स्पर्श करे :- ॐ लौहवद्‌ दृढ़कायोस्तु || लोहा । ॐ अश्मेव स्थिरो भूयासम्‌।। पत्थर । “सुगम-श्राद्ध-विधि” ॐ अग्निर्नः शर्म यच्छतु।। आग । तत्पश्चात्‌ बिना मंत्र के ही जल छूकर सभी अपने घर को प्रस्थान करे । स्नानादिकोपरांत दशगात्र पिण्डदान की विधि गंगातट पर शवदाह करने वाले वहीं प्रारम्भ कर देते हैं । अतः मृतक के मृत्यु दिवस से गिनते हुए दाह दिवस तक के पिण्ड-दान करना चाहिए । विशेषतः एक ही दिन में दाह-क्रिया होती है अतः एक ही पिण्ड दिया जाता है पर रात्रिमरण होने पर दो दिन की मान्यता से दो पिण्ड देना चाहिए। जन्म-मृत्यु में सूर्योदय से सूर्योदयपर्यन्त 1 दिन माना जाता है । अन्यत्र उषाकालादि का प्रमाण व्रतादिपरक है । तस्मान्निधेयमाकाशे दशरात्रं पयस्तथा । सर्वथा तापशान्त्यर्थमध्वश्रमविनाशनम्‌ ॥। मत्यस्यपुराण पंचक-दाह, पर्णरदाह, पंचक-मरण-शान्ति, अस्थिसंचय विधि, सांवत्सरिक-एकोदिष्ट विधि, पंचसूक्त आदि प्रस्तुत संस्करण में सम्मिलित नहीं किया गया है जिसे आगामी संस्करण में सम्मिलित करने का प्रयास किया जाएगा । वृषोत्सर्ग वर्तमान युगानुकूल नहीं होने के कारण समाहित नहीं किया जा सकेगा । “सुगम-श्राद्ध-विधि” ।। घटदान-विधि ।। द्वार, पीपलवृक्ष आदि जगहों पर कुलाचार से घटदान करना चाहिए । शवदाहकर्ता पवित्र होकर दक्षिणाभिमुख-अपसव्य मोड़ा, तिल, जल लेकर संकल्प करे - डं पित ०९७.९८. प्रेतस्य सर्वपाप प्रशान्त्यध्व श्रम विनाश कामः अद्यादि दशरात्रं यावत्‌ आकाशाधिकरणक जलदानमहं करिष्ये ।। इसी जगह संध्याकाल में दुग्धादि भी दिया जाता है । सायंकाल घट के नीचे गाय के गोबर से चौका लगा कर पवित्र हो जाय । दीप, अगरबत्ती जला कर दक्षिणाभिमुख अपसव्य हो जाय । तीन लकड़ी पर तीन पीपल का पत्ता रखे, एक में जल दूसरे में गाय का दूध व तीसरे पत्ते पर फूल-माला रखे वहीं धूप, दीप आदि भी जला ले । बांया जांघ गिराकर बैठे। मोड़ा, तिल, जल लेकर सभी वस्तु का उत्सर्ग करते हुए सभी वस्तुएं (धूप-दीप छोड़कर) घट में अर्पित करे - जल :- ॐ अस्यां सन्ध्यायां गोत्र पिः २०४६० प्रेत इदं जलं ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ । अत्र स्नाहि ।। जल वाले पात्र को बांये हाथ में लेकर मंत्र से उत्सर्ग करके दाहिने हाथ के पितृतीर्थं से जल घट में दे । दूध :- ॐ अस्यां सन्ध्यायां गोत्र पित? ००५७५; प्रेत इदं दुग्धं ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ । इदं दुग्धं पिब ।। 23 “सुगम-श्राद्ध-विधि” 24 दूध वाले पात्र को बांये हाथ में लेकर उत्सर्ग करते हुए दाहिने हाथ के पितृतीर्थ से दूध घट में दे दे । माला :- ॐ अस्यां सन्ध्यायां गोत्र पितः ..... प्रेत इदं माल्यं ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ । इदं माल्यं परिधेहि ।। माला पर तिल, जल छींट कर माला घट में पहना दे । दीप :- ॐ अस्यां सन्ध्यायां गोत्र पितिः + प्रेत इदं दीपं ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ । अनेन पश्य ।। ।। दशगात्र-पिण्डदान ।। शिरस्त्वाद्येन पिण्डेन प्रेतस्य क्रियते सदा । द्वितीयेन तु कर्णाक्षिनासिकाश्च समासतः गलांसभुजवक्षांसि तृतीयेन यथाक्रमात्‌ । चतुर्थेन तु पिण्डेन नाभिलिंगगुदानि च जानुजंघे तथा पादौ पंचमेन तु सर्वदा । सर्वमर्माणि षष्ठेन सप्तमेन तु नाडयः दन्तलोमाद्यष्टमेन वीर्यं तु नवमेन च । दशमेन तु पूर्णत्वं तृप्तता क्षुद्विपर्ययः प्रथम-पिण्ड-दान पिण्डदाता स्नान कर श्वेत वस्त्र धारण करे । मिट्टी के नए बर्तन में पाककर्म कर ले । बालु की दक्षिणप्लव वेदी “सुगम-श्राद्ध-विधि” 25 बना कर वेदी पर दक्षिणाग्र तीन कुश रख दे । अगरबत्ती, धूप, दीप जला ले । पवित्रीकरण करके अपसव्य-दक्षिणाभिमुख होकर एक पीपल के पुड़े में तिल, चंदन, जल देकर बांये हाथ में ले ले । बायां जंघा गिराकर बैठते हुए दाहिने हाथ में मोड़ा, तिल, जल लेकर अत्रावन का उत्सर्ग करे :- ॐ अद्य गोत्र पितः ....... प्रेत ( गोत्रे मातः ...... प्रेते) अत्रावने निक्ष्व ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। अत्रावन का उत्सर्ग करके पितृतीर्थं से कुछ जल वेदी के कुशों पर गिरावे व कुछ जल शेष रखकर अपने बांए भाग में प्रत्यवन वास्ते पूड़ा रख ले - वाजसनेयी (छन्दोगी का प्रत्यवन अलग पुडे से होता है)। भात में तिल, मधु, धी, दुग्धादि मिलाकर बिल्वाकार पिण्ड बना कर बांए हाथ में ले ले, दाहिने हाथ में मोड़ा-तिल-जल लेकर पिण्डोत्सर्ग करे : प्रेत एष शिरःपूरकःप्रथमः पिण्डस्ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌।। पिण्डोत्सर्ग कर वेदी के कुशों पर दोनों हाथ से पिण्ड प्रदान करे । फिर वाजसनेयी अत्रावन का अवशेष जल प्रत्यवन रूप में दे और छन्दोगी नये पूड़े में तिल, जल, चंदन, फूल दे बाएं हाथ में लेकर दाहिने हाथ में मोड़ा-तिल-जल लेकर उत्सर्ग करे : ॐ अद्य गोत्र पितः .......... प्रेत अत्र प्रत्यवने निक्ष्व ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। प्रत्यवन का उत्सर्ग कर जल पिण्ड पर देकर बिना मंत्र के पिण्ड पूजनार्थं :- चंदन, फूल, धूप, दीप, केला, पान, सुपारी, दूध, जल उनी धागा आदि पिण्ड पर चढ़ावे । फिर मोड़ा, तिल, जल लेकर मंत्र पढ़ते हुए पिण्ड के उत्तर भाग में एक बार गिरावे : “सुगम-श्राद्ध-विधि” 26 गोत्र पितः ......... प्रेत एष तिलतोयांजलिस्ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। पीपल के एक पूड़े में तिल, जल लेकर उत्सर्ग करके पिण्ड के उत्तर भाग में रखे :- गोत्र पितः .......... प्रेत इदं तिलतोयपात्रं ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। (छन्दोगी में विशेषता ये है कि अत्रावनादि के उपरांत जलस्पर्श कर ले)। दक्षिणा :- त्रिकुश, तिल, जल लेकर दक्षिणा करे :- गोत्रस्य पितुः ....... प्रेतस्य ( गोत्राया मातुः ...... प्रेतायाः ) कृतैतत्‌ शिरः पूरक प्रथम पिण्डदान प्रतिष्ठार्थम्‌ एतावत्‌ (यद्दीयमान) द्रव्यमूल्यकं रजतं चन्द्रदैवतं शर्मणे ब्राह्मणायदक्षिणां अहं ददे ।। (दातुमहमुत्सृज्ये) ग्रहणकर्ता ब्राह्मण 'ॐ स्वस्ति’ कह कर दक्षिणा ले लेवें । पिण्डादि सभी वस्तु जल में प्रवाहित कर दें । इसी तरह प्रतिदिन एक-एक पिण्ड-दान करना चाहिए । अत्रावन एवं प्रत्यवन मंत्रों में परिवर्तन नहीं होगा । पिण्डदान और दक्षिणा के मंत्रों में अंग एवं दिन वाचक दो परिवर्तन होगा । तिलतोयांजलि और तिलतोयपात्र के मंत्रों में विशेष अंतर होगा यह ध्यान रखें । इस प्रकार कुल 55 तिलतोयांजलि और तिलतोयपात्र देना चाहिए । द्वितीयादि पिण्डदान के मंत्र निर्देश पूर्वक संक्षिप्त रूप से दिये जा रहे हैं :- “सुगम-श्राद्ध-विधि” द्वितीय-पिण्ड-दान प्रथम दिन के तरह ही दूसरे दिन भी अत्रावन-पिण्डदान व प्रयवन प्रदान कर दो तिलतोयांजलि देकर दो तिलतोयपात्र प्रदान करे : अत्रावने निक्ष्व ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। कर्णाक्षिनासापूरकःएष द्वितीयःपिण्डस्ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। अत्र प्रत्यवने निक्ष्व ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। दो तिलतोयांजलि- ॐ अद्य एतौ द्वौ तिल-तोयांजली ते मया दीयेते तवोपतिष्ठेताम्‌ ।। 27 दो तिलतोयपात्र - ॐ अद्य एते द्वे तिलतोयपात्रे ते मया दीयेते तवोपतिष्ठेताम्‌ ।। दक्षिणा - ऊँ अद्य कृतैततू कर्णाक्षिनासापूरक द्वितीय पिण्डदान प्रतिष्ठार्थम्‌ अहं ददे ।। तृतीय-पिण्ड-दान अत्रावने निक्ष्व ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। गलांसभुजवक्षःपूरकः एष तृतीयः पिण्डस्ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। अत्र प्रत्यवने निक्ष्व ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। “सुगम-श्राद्ध-विधि” तीन तिलतोयांजलि-ॐ अद्य ....... एते त्रयः तिलतोयांजलयः ते मया दीयन्ते तवोपतिष्ठन्ताम्‌ ।। तीन तिलतोयपात्र -ॐ अद्य ....... एतानि त्रीणि-तिलतोय-पात्राणि ते मया दीयन्ते तवोपतिष्ठन्ताम्‌ ।। दक्षिण - ऊँ अद्य ...... कृतैतत्‌ गलांसभुजवक्षः पूरक तृतीयपिण्डदान प्रतिष्ठार्थं ...... दक्षिणां अहं ददे ।। चतुर्थ-पिण्ड-दान अत्रावन - ऊँ अद्य .................. अत्रावने निक्ष्व ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। पिण्ड - ॐ अद्य ........ नाभिलिंगगुद-पूरक एष चतुर्थः पिण्डस्ते मया दीयतेतवोपतिष्ठताम्‌ ।। प्रत्यवन - ॐ अद्य .............. अत्र प्रत्यवने निक्ष्व ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। चार तिलतोयांजलि-ॐ अद्य ........ एते चत्वारः तिलतोयांजलयः ते मया दीयन्ते तवोपतिष्ठन्ताम्‌ ।। चार तिलतोयपात्र -ॐ अद्य ....... एतानि चत्वारि तिलतोयपात्राणि ते मया दीयन्ते तवोपतिष्ठन्ताम्‌ ।। दक्षिणा - ॐ अद्य ...... कृतैतत्‌ नाभिलिंगगुदपूरक चतुर्थपिण्डदान प्रतिष्ठार्थं ...... दक्षिणां अहं ददे ।। पंचम-पिण्ड-दान ॐ अद्य .................. अत्रावने निक्ष्व ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। कि जानुजंघापाद-पूरक एष पंचमः पिण्डस्ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। “सुगम-श्राद्ध-विधि” प्रत्यवन अत्र प्रत्यवने निक्ष्व ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। पांच तिलतोयांजलि - ॐ अद्य एते पंचतिल-तोयांजलयः ते मया दीयन्ते तवोपतिष्ठन्ताम्‌ ।। पांच तिलतोयपात्र - ॐ अद्य एतानि पंचतिलतोय-पात्राणि ते मया दीयन्ते तवोपतिष्ठन्ताम्‌ ।। दक्षिणा - ॐ अद्य कृतैतत्‌ जानुजंघापादपूरक पंचमपिण्डदान प्रतिष्ठार्थं षष्ठ-पिण्ड-दान अत्रावन अत्रावने निक्ष्व ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। पिण्ड - ॐ अद्य सर्वमर्म पूरक एष षष्ठः पिण्डस्ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌।। प्रत्यवन अत्र प्रत्यवने निक्ष्व ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। छः तिलतोयांजलि-ॐ अद्य एते षट्‌ तिल-तोयांजलयः ते मया दीयन्ते तवोपतिष्ठन्ताम्‌ ।। छः तिलतोयपात्र - ॐ अद्य एतानि षट्‌ तिलतोयपात्राणि ते मया दीयन्ते तवोपतिष्ठन्ताम्‌ ।। दक्षिण - ॐ अद्य कृतैतत्‌ सर्वमर्मपूरक षष्ठपिण्डदान प्रतिष्ठार्थं दक्षिणां अहं ददे ।। सप्तम-पिण्ड-दान अत्रावन अत्रावने निक्ष्व ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ “सुगम-श्राद्ध-विधि” सर्वनाड़ी पूरक एष सप्तमः पिण्डस्ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। अत्र प्रत्यवने निक्ष्व ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। सात तिलतोयांजलि -ॐ अद्य एते सप्त तिल-तोयांजलयः ते मया दीयन्ते तवोपतिष्ठन्ताम्‌।। सात तिलतोयपात्र-ऊ अद्य एतानि सप्त तिलतोयपात्राणि ते मया दीयन्ते तवोपतिष्ठन्ताम्‌ ।। दक्षिणा - ॐ अद्य कृतैतत्‌ सर्वनाड़ीपूरक सप्तमपिण्डदान प्रतिष्ठार्थं दक्षिणां अहं ददे ।। अष्टम-पिण्ड-दान अत्रावन अत्रावने निक्ष्व ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। पिण्ड $ अद्य नख-दन्त-लोमादि पूरक एष अष्टमः पिण्डस्ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। प्रत्यवन ठं अत्र प्रत्यवने निक्ष्व ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। आठ तिलतोयांजलि-क अद्य एते अष्ट-तिल-तोयांजलयः ते मया दीयन्ते तवोपतिष्ठन्ताम्‌ ।। आठ तिलतोयपात्र -ॐ अद्य.....एतानि अष्ट तिलतोयपात्राणि ते मया दीयन्ते तवोपतिष्ठन्ताम्‌।। दक्षिणा - ॐ अद्य कृतैतत्‌ नखदन्तलोमादिपूरक अष्टमपिण्डदान प्रतिष्ठार्थ...... दक्षिणां अहं ददे।। “सुगम-श्राद्ध-विधि” 31 नवम-पिण्ड-दान अत्रावन - ॐ अद्य अत्रावने निक्ष्व ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। पिण्ड वीर्यं पूरक एष नवमः पिण्डस्ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। प्रत्यवन अत्र प्रत्यवने निक्ष्व ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। नौ तिलतोयांजलि -ॐ अद्य एते नव तिल-तोयांजलयः ते मया दीयन्ते तवोपतिष्ठन्ताम्‌ ।। नौ तिलतोयपात्र - ॐ अद्य.......एतानि नव तिलतोयपात्राणि ते मया दीयन्ते तवोपतिष्ठन्ताम्‌ ।। दक्षिणा - ॐ अद्य कृतैततू वीर्यपूरक नवमपिण्डदान प्रतिष्ठार्थं दक्षिणां अहं ददे ।। दशम-पिण्ड-दान अत्रावन अत्रावने निक्ष्व ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। पिण्ड पूर्णत्व-तृप्तता-क्षुद्िपर्यय-पूरक एष दशमः पिण्डस्ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। प्रत्यवन अत्र प्रत्यवने निक्ष्व ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। दश तिलतोयांजलि -ॐ अद्य एते दश तिल-तोयांजलयः ते मया दीयन्ते तवोपतिष्ठन्ताम्‌।। “सुगम-श्राद्ध-विधि” 32 दश तिलतोयपात्र -ॐ अद्य एतानि दश तिलतोयपात्राणि ते मया दीयन्ते तवोपतिष्ठन्ताम्‌ ।। दक्षिणा - ॐ अद्य कृतैततू पूर्णत्वतृप्तताश्षुदिपर्यय पूरक दशम पिण्डदान दक्षिणामहं ददे ।। दशगात्र पिण्डदान में अशीच वृद्धि होने पर नौ पिण्ड-दान करके ; दशवां पिण्ड क्षौर दिन देने का शास्त्रीय विधान है । त्रिरात्राशौच में क्रमशः 3, 4 और 3 पिण्ड देते हुए तीन दिन में ही 10 पिण्ड देना चाहिए । सद्यःशौच में दशो पिण्ड स्नान के बाद ही दे देना चाहिए ।क्षत्रियादि वर्णो को नौ पिण्ड प्रतिदिन देकर दशवां पिण्ड क्षौर कर्म के दिन देना चाहिए । तैल खल्ली :- ॐ अद्य प्रेत इमे तैलखल्ली ते मया दीयेते तवोपतिष्ठेताम्‌ ।। सौरि-सूर्य-कुज वार क्षौर दोष शान्ति मंत्र :- ॐ केशवमानर्ततपुरं पाटलीपुत्रपुरीमहीक्षत्राम्‌ । दितिमदितिं स्मरतां क्षौरकर्मसु भवति कल्याणम्‌ ।। “सुगम-श्राद्ध-विधि” हिन्दी/संस्कृत प्रथमा सम्बोधन चतुर्थी षष्ठी सपिण्डन पिता/पितू पिता पितः पित्रे पितुः पितामह प्रपितामह वृद्धप्रपितामह माता/मातृ माता मातः मात्रे मातुः पिता/पितामही पितामह/प्रपितामही प्रपितामह/वृद्धप्रपिता0 चाचा/पितृव्यः पितृव्यः पितृव्य पितृव्याय पितृव्यस्य पितामह प्रपितामह वृद्धप्रपितामह बाबा/पितामहः पितामहः पितामह पितामहाय पितामहस्य प्रपितामह वृद्धप्रपितामह अतिवृद्धप्रपितामह मामा/पितामही पितामही पितामहि पितामह्यै पितामह्याः पितामह प्रपितामह वृद्धप्रपितामह भाई/आतृ भ्राता भ्रातः भ्रात्रे आतुः पिता पितामह प्रपितामह गुरु /गुरुः गुरुः गुरो गुरवे गुरोः परगुरु परमगुरु वृद्धपरमगुरु पति/पतिः पतिः पते पत्ये पत्युः श्वशुर प्रश्वशुर वद्धप्रश्वशुर पत्नी/पत्नी पत्नी पत्नि प्ल्न्ये पत्न्याः माता पितामही प्रपितामही भतीजा/आतुज्यः भ्रातृज्यः भ्रातृज्य भतृज्याय भ्रातृज्यस्य पिता पितामह प्रपितामह चचराभई/पितृयफुः पितृव्यपुत्रः पितृव्यपुत्र पितृव्यपुत्राय पितृव्यपुत्रस्य पितृव्य पितामह प्रपितामह चाची-पितृव्यपत्नी, साला-श्यालः, साली-श्याली, साढू-श्यालीबोढः, मौसी-मातृष्वसृ, मौसा-मातृष्वसृपति, फुआ-पितृष्वसृ फूफा-पितृष्वसृपति, बहन-स्वसु, बहनोई-आवृत्तः, सौतेली मां-विमातू, सौतेला भाई-वैमात्रेयः, भाभी-प्रजावती, पुत्रवधू-स्नुषा जब मृतक और कर्ता के मध्य कोई ऐसा संबंध हो कि सपिण्डन में मृतक के पिता, पितामहादि वास्ते प्रत्यक्ष संबोधन न मिले तो प्रेतपिता, प्रेतपितामह और प्रेतप्रपितामहादि शब्द का प्रयोग करना चाहिए । “सुगम-श्राद्ध-विधि” श्राद्ध जिज्ञासा प्रश्‍न 1. माता की मृत्यु के बाद अशौच मध्य में पिता की भी मृत्यु होने पर अशौच, श्राद्धक्रेया का क्रम एवं सपिण्डन विधान कैसे होना चाहिए ? उत्तर :- पितृ-प्रधानता हो जाएगी व पिता के अशीच से शुद्धि होगी साथ ही श्राद्ध क्रिया का क्रम पितृ-मातृ होकर एक ही साथ होगी । माता का सपिण्डन पितादिको के साथ होगा । अर्थात्‌ पिता का सपिण्डन पहले और माता का सपिण्डन बाद में होगा । यदि पिता की मृत्यु के बाद अशीच मध्य में ही माता की मृत्यु होती है तो सम्पूर्ण अशौचोपरांत पक्षिणी (ढाई दिन) अधिक अशौच होगा । मातर्यग्रे प्रमीतायामशुद्धौ म्रियतेपिता। पितुःशेषेणशुद्धिः स्यान्मातुः कुर्याच्च पक्षिणीम्‌ ।। शंख प्रश्‍न 2. माता का सपिण्डन पिता के जीवित व मृत में किनके-किनके साथ होना चाहिए ? उत्तर :- पिता के जीवित रहने पर माता का सपिण्डन पितामह्यादि से और पिता के मृत रहने पर पिता-पितामहादि से होना चाहिए । प्रश्‍न 3. अशीच वृद्धि होने में दशगात्र पिण्डदान का क्या विधान है ? उत्तर :- अशीच वृद्धि होने पर नौ पिण्ड प्रतिदिन देना चाहिए, पर दशवां पिण्ड क्षीर दिन देने का विधान है। प्रश्‍न 4. क्या श्राद्ध करने से मृतात्मा को स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है ? उत्तर :- नहीं, श्राद्ध करने से मृतात्मा को प्रेतत्व से मुक्ति मिलती है । “सुगम-श्राद्ध-विधि” 35 प्रश्‍न 5. एकादशाह को ब्राह्मण (ग्राम-पुरोहित को) भोजन करना चाहिए या नहीं ? उत्तर :- अधिकतर ब्राह्मण (ग्राम-पुरोहित) भोजन द्वादशाह को होते देखा जाता है । कारण कि पुरोहित-भोज देव-निमित्तक होता है । एकादशाह को विश्वेदेवश्राद्ध नहीं होता है बल्कि सपिण्डन श्राद्ध में विश्वेदेवश्राद्ध होता है । इस कारण द्वादशाह को पुरोहित-भोज आवश्यक हो जाता है । अतः एकादशाह को पुरोहित-भोजन कराने पर भी द्वादशाह को भी अवश्य ही कराना चाहिए । पर यदि एकादशाह को भी कराया जाय तो वर्जित नहीं माना जाएगा । कारण कि श्राद्ध भोजी ब्राह्मण तो श्राद्ध-स्थला में ही भोजन कर लेते हैं, एवं एकादशाह के श्राद्ध-भोजन का जो दोष कहा गया है वो उन्हीं के निमित्त है न कि पुरोहित-भोज परक । तथापि पुरोहित-भोज द्वादशाह के दिन गणेश पूजनोपरांत ही अधिक उचित है । अतः पुरोहित-भोज द्वादशाह को तो होना ही चाहिए साथ-साथ यदि एकादशाह को भी हो तो कोई प्रतिबंध नहीं है, लेकिन इसके विपरीत यदि किसी कारणवश एकादशाह को ही करते हैं और द्वादशाह को नहीं तो भोजी और ब्राह्मण दोनों ही दोषी होते हैं । प्रश्‍न 6. आद्यश्राद्ध में दक्षिणापूर्व गोदान का क्या कारण है ? उत्तर :- यज्ञान्त में गोदान का विधान होने के कारण पंचदान का गोदान ही आद्यश्राद्ध में दक्षिणा से पूर्व किया जाता है। तथापि यदि यही कारण है तो वर्तमान समय में श्राद्धारम्भ पूर्व पंचदान प्रकरण में ही करना चाहिए । यज्ञान्त में गोदान की स्वीकार्यता होने पर तो सपिण्डनोपरांत गोदान करना उचित होगा । प्रश्‍न 7. पंचधेनु के क्या नाम हैं ? “सुगम-श्राद्ध-विधि” उत्तर :- पंचधेनु के नाम निम्न हैं : 1. ऋणापनोद , 2. पापापनोद, 3. उत्क्रान्ति, 4. वैतरणी और 5. मोक्ष धेनु । प्रश्‍न 8. क्या बिल्व वृक्ष के निकट श्राद्ध नहीं करना चाहिए ? उत्तर :- श्राद्ध में पिण्डपूजन के लिए बिल्वपत्र का निषेध है । बिल्व वृक्ष के निकट श्राद्ध करना प्रशस्त है । अतः बिल्ववृक्ष की छाया में श्राद्ध करना शास्त्रसम्मत ही है । प्रश्‍न 9. पंचदान क्या है ? उत्तर :- पंचदान है - 1. शय्या, 2. काञ्चनपुरुष, 3. गाय, 4. छाता और 5. जूता । प्रश्‍न 10. अनेक पुत्रों में से षोडश श्राद्ध किसे करना चाहिए ? उत्तर :- अनेक पुत्रों में से ज्येष्ठ पुत्र को ही षोडश श्राद्ध करने का अधिकार है । ज्येष्ठ पुत्र के अशक्तावस्था में या अभाव (विदेशगतादि) होने पर अन्य पुत्र भी कर सकते हैं । प्रश्‍न 11. प्रेतकर्म में 18 वर्जित क्या-क्या है ? उत्तर :- प्रेतकर्म में 18 वर्जित इस प्रकार है :- 1.आशीः कथन, 2.दिगुणित दर्भ, 3.जप, 4.आशीर्वाद, 5.स्वस्तिवाचन 6.पितृपद, 7.संबंधवाचक अस्मत्‌, 8.शर्मादि, 9.भोजनपात्र स्पर्श, 10.अवगाहन, 11 .उल्मुक, 12.उल्लेखन, 13 .तृप्तिप्रश्न 14.विकिरपिंद, 15.शेषान्न विषयक प्रश्‍न, 16.प्रदक्षिणा, 17.विसर्जन और 18.सीमान्तगमन । प्रश्‍न 11. श्राद्ध की 13 क्रिया क्या है ? उत्तर :- पाद्य, अर्घ, आसन, सविधि अर्घ्यदान, अर्चन, भोजन, अवनेजन, पिंड, प्रत्यवनेजन, अर्चन, प्रोक्षन, दक्षिणा और पृच्छा । “सुगम-श्राद्ध-विधि” ।। संध्या विधि ।। संध्याहीनो 5शुचिर्नित्यमनर्हः सर्वकर्मसु । यदन्यत्कुरुते कर्म न तस्य फलभाग्भवेत्‌ ।। आचमन :- 1. ॐ केशवाय नमः, ॐ माधवाय नमः, ॐ नारायणाय नमः । तीन आचमन करके अँगूठे के मूल से ओठ पोछकर निम्न मंत्र से हाथ धोये : ॐ हृषीकेशाय नमः । पवित्रीकरण :- जल लेकर शरीर एवं पूजनोपकरणों पर पर छिड़कें : ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थाङ्गतोऽपि वा । यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स बाह्याऽभ्यंतरः शुचिः।। पुण्डरीकाक्षः पुनातु ।। ॐ पुण्डरीकाक्षः पुनातु ।। आसनशुद्धि : ॐ पृथ्वी त्वया ध॒तालोका देवी त्तं विष्णुनाधृता। त्वं च धारय मां नित्यं पवित्रंकुरु चासनम्‌ ।। आचमन विनियोग : ऋतंचेति माधुच्छन्दसो 5घमर्षण क्रषिरनुष्टुप्छन्दो भाववृत्तं दैवतमपामुपस्पर्शने विनियोगः ।। आचमन : ॐ ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत। ततो रात्र्यजायत। ततः समद्रो अर्णवः। समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो अजायत । अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी । सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्‌ । दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्वः ।। “सुगम-श्राद्ध-विधि” प्राणायाम तीन बार गायत्री मंत्र पढकर अपने शरीर के चारों ओर जल छिड़क कर विनियोग करेः- विनियोग :- ॐ कारस्य ब्रह्मा ऋषिर्देवी गायत्री छन्दः परमात्मादेवता, सप्तव्याहतीनां प्रजापतिर्क्रषिः गायत्र्युषिणिगनुष्टुब्बृहतीपङ्कक्ति त्रिष्टुब्जगत्यश्छन्दांस्यग्निवाय्वादित्य बृहस्पतिवरुणेन्द्रविष्णवो देवता तत्सवितुरिति विश्वामित्र ऋषिर्गायत्री छन्दः सविता देवता, आपो ज्योतिरिति शिरसः प्रजापतिः ऋषिर्यजुश्छन्दो ब्रह्माग्निवायुसूर्या देवताः प्राणायामे विनियोगः ।। प्राणायाम करते हुए यह मंत्र जपे : ॐ भुः ॐ भुवः ॐ स्वः ॐ महः ॐ जनः ॐ तपः ॐ सत्यम्‌ ॐ तत्सवितुरेण्यं भगो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्‌।। ॐ आपो ज्योती रसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरोम्‌।। आचमन विनियोग : सूर्यश्च मेति नारायण ऋषिः अनुष्टुप्छन्दः सूर्यो देवता अपामुपस्पर्शने विनियोगः ।। आचमन : ॐ सूर्यश्च मा मन्युश्च मन्युपतयश्च मन्युकृतेभ्यः पापेभ्यो रक्षन्ताम्‌। यद्रात्र्या पापमकार्षं मनसावाचाहस्ताभ्यां पद्भयामुदरेणशिश्ना रात्रिस्तदवलुम्पतु । यत्किंचदुरितं मयि इदमहमापोऽमृतयोनौ सूर्येज्योतिषि जुहोमि स्वाहा ।। मार्जन “सुगम-श्राद्ध-विधि” 39 विनियोग :- आपो हिष्ठेत्यादित््यूचस्य सिन्धुद्वीप ऋषिर्गायत्रीछन्द आपोदेवता मार्जने विनियोगः ।। मार्जन :- ॐ आपो हिष्ठा महयोभुवः।।। ॐ ता न ऊर्जे दधातन।2। ॐ महे रणाय चक्षसे 8। ॐ यो वः शिवतमो रसः ॥। ॐ तस्य भाजयतेह नः।5। ॐ उशतीरिव मातरः ॥6। ॐ तस्मा अरं गमाम वः 7। ॐ यस्य क्षयाय जिन्वथ ।8। - भूमि पर छिड़के । ॐ आपो जनयथा च नः ।9। - इस मंत्र से पुनः शिर पर मार्जन करे । विनियोग :- द्रुपदादिवेत्यस्य कोकिलो राजपुत्रऋषिरनुष्टुप्छन्दः आपोदेवताः शिरस्सेके विनियोगः ।। बांये हाथ में जल लेकर दाहिने हाथ से ढंक ले निम्न मंत्र पढकर सिर पर छिड़के : मंत्र : ॐ द्रुपदादिव मुमुचानः स्विन्नः स्नातो मलादिव । पूतं पवित्रेणेवाज्यमापः शुन्धन्तु मैनसः।। अघमर्षण विनियोग :- अघमर्षणसूक्तस्याऽघमर्षण ऋषिरनुष्टुप्छन्दो भाववृतो देवता अघमर्षणे विनियोगः।। दाहिने हाथ में जल लेकर नाक से लगाकर अगला मन्त्र पढे और ध्यान करे कि समस्त पाप (वामकुक्षि स्थित कृष्णवर्ण पुरुष) दाहिने नाक से निकलकर हाथ के जल में आ गये हैं । फिर जल को बिना देखे बायीं ओर फेंक दे । मंत्र :- ॐ ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत । ततो रात्र्यजायत । ततः समद्रो अर्णवः ।। समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो अजायत । अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी । “सुगम-श्राद्ध-विधि” सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्‌ । दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्वः ।। आचमन विनियोग : अन्तश्चरसीति तिरश्चीन ऋषिरनुष्टुप्छन्दः आपो देवता अपामुस्पर्शने विनियोगः ।। आचमन : ऊँ अन्तश्चरसिभूतेषु गुहायांविश्वतोमुखः । त्वंयज्ञस्त्वंवषट्कार आपोज्योतीरसोऽमृतम्‌ ।। सूर्याध्यदान विनियोग : ॐ कारस्य ब्रह्मा ऋषिर्देवी गायत्रीछन्दः परमात्मा देवता, भूर्भुवः स्वरिति महाव्याहतीनां परमेष्ठी प्रजापतिऋषिः गायत््युष्णिगनुष्टुभशछन्दांसि अग्निवायुसूर्या देवताः, तत्सवितुरित्यस्य विश्वामित्र ऋषिर्गायत्री छन्दः सविता देवता सूर्याऽ्घ्यदाने विनियोगः।। गायत्री मन्त्र से सूर्य भगवान को अर्ध्य दे : ॐ ब्रह्मस्वरूपिणे सूर्यनारायणाय नमः ।। सूर्यो पस्थान विनियोग : उद्घयमित्यस्य प्रस्कण्व ऋषिरनुष्टुष्छन्दः सूर्योदेवता, उदुत्यमित्यस्य प्रस्कण्वऋषिः निचुद्रायत्रीछन्दः सूर्योदिवता, चित्रमित्यस्य कीत्सऋषिस्ित्रष्टुप्छन्दः सूर्योदेवता, तच्चक्षुरित्यस्य दध्यङ्थर्वण ऋषिरक्षरातीतपुर उष्णिक्छन्दः सूर्यो देवता सूर्योपस्थाने विनियोगः ।। “सुगम-श्राद्ध-विधि” 41 उपस्थान मंत्र : ॐ उद्वयं तमसस्परि स्वः पश्यन्त उत्तरम्‌ । देवं देवत्रा सूर्यमगन्म ज्योतिरुत्तमम्‌ ।। ॐ उदुत्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः । दृशे विश्वाय सूर्यम्‌ ।। ॐ चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः । आप्राद्यावापुथिवि अन्तरिक्ष ` सूर्य आत्माजगतस्तस्थुषश्च ।। ॐ तच्चक्षर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्‌ । पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शत > शृणुयाम शरदः शतं प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात्‌ ।। गायत्री जप विधान न्सास : ॐ तत्सवितुः हृदयाय नमः । ॐ वरेण्यं शिरसे स्वाहा । ॐ भर्गो देवस्य शिखायै वषट्‌ । ॐ धीमहि कवचाय हुम्‌ । ॐ धियो यो नः नेत्रत्रयाय वौषट्‌ । ॐ प्रचोदयात्‌ अस्त्राय फट्‌ । गायत्री आवाहन विनियोग : तेजोऽसीति धामनामासीत्यस्य च परमेष्ठी प्रजापतिऋषिः यजुस्त्रष्टुबुष्णिहौ छन्दसी आज्यं देवता गायत्र्यावाहने विनियोगः । आवाहन मंत्र : ऊ तेजोऽसि शुक्रमस्यमृतमसि । धामनामासि प्रियं देवानामनाधृष्टं देवयजनमसि ।। आगच्छ वरदे देवि जपे मे सन्निधी भव । गायन्तं त्रायते यस्मात्‌ गायत्री त्वं ततः स्मृता ।। “'सुगम-श्राद्ध-विधि’ विनियोग : गायत्र्यसीति विवस्वान्‌ ऋषिः स्वराण्महापड्क्तश्छन्दः परमात्मा देवता गायत्र्युपस्थाने विनियोगः। उपस्थानमंत्र : ॐ गायत्र्यस्येकपदी द्विपदी त्रिपदी चतुष्पद्यपदसि । न हि पद्यसे नमस्ते तुरीयाय दर्शताय पदाय परोरजसेऽसावदो मा प्रापत्‌ ।। विनियोग : ॐ कारस्य ब्रह्मा ऋषिर्गायत्री छन्दः परमात्मा देवता, भूर्भुवः स्वरिति महाव्याहृतीनां परमेष्ठी प्रजापतिऋषिः गायत्र्युष्णिगनुष्टुभश्छन्दांसि अग्निवायुसूरयादेवताः, तत्सवितुरित्यस्य विश्वामित्र ऋषिर्गायत्रीछन्दः सविता देवता जपे विनियोगः ।। (पश्चात्‌ 1008 या 108 गायत्री जप करे) गायत्री मंत्र ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि । धियो यो नः प्रचोदयात्‌ ॥ जप समर्पण ॐ गुह्याति गुह्यगोप्तरीत्वं गृहाणास्मत्कृतं जपं । सिद्धिर्भवतु मे देवि त्वत्प्रसादान्महेश्वरी ।। गायत्री विसर्जन विनियोग : उत्तमे शिखरेति वामदेव ऋषिरनुष्टुप्छन्दः गायत्री देवता गायत्री विसर्जने विनियोगः ।। विसर्जन : ॐ उत्तमे शिखरे देवी भूम्यां पर्वतमूर्धनि । ब्राह्मणेभ्योऽभ्यनुज्ञाता गच्छ देवि यथासुखम्‌ ॥ “सुगम-श्राद्ध-विधि” संक्षिप्त संध्या विधि समयाभाव या अन्य कारणों से विस्तृत विधिपूर्वक संध्या न कर पाने की स्थिति में संक्षिप्त संध्या विधि भी दी जा रही है । प्रायः देखा जाता है कि उपरोक्त समस्त संध्या विधि विस्तृत ही की जाती है पर गायत्री जप मात्र 10 बार ही किया जाता हे अथवा कर्त्ता को गायत्री मंत्र भी नहीं आता है तो कराने वाले पंडित ही 10 बार गायत्री पाठ करा देते हैं । अतः ऐसी अवस्था में अन्य विस्तृत विधान न करके संक्षिप्त रूप से ही संध्या करना उचित रहेगा । संक्षिप्त संध्या विधि में निम्न विधियां करें :- 1. आचमन, 2. आत्मशुद्धि, 3. प्राणायाम, 4. सूर्या््यदान, 5. गायत्री आवाहन 6. न्यास, 7. गायत्री मंत्र जप, 8. जप समर्पण और 9. गायत्री विसर्जन । उपरोक्त विधि से संक्षिप्त संध्योपासना में मंत्रों का विनियोग करना भी अनिवार्य नहीं है । संध्या में विधि की सहजता अपनाते हुए गायत्री मंत्र जप की महत्ता स्वीकार करनी चाहिए और जप 108 बार करें। जीवन में मात्र एक-दो बार श्राद्ध के अवसर पर ही संध्या करने वाले व्यक्तियों के लिए उतनी विस्तृत विधि कोई विशेष मायने नहीं रखती । यजमान को गायत्री मंत्र अवश्य ही आना चाहिए । यदि यजमान गायत्री मंत्र नहीं जानता हो तो उसके लिए हरिस्मरण ही पर्याप्त है । “सुगम-श्राद्ध-विधि” “वाजसनेयी तर्पण विधि” पवित्रीकरण : पूर्वाभिमुख कुश धारण कर दाहिने हाथ में जल लेकर शरीर पर छिड़के : ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थाङ्गतोऽपि वा। यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स बाह्या5भ्यंतरः शुचिः।। पुण्डरीकाक्षः पुनातु ।। ॐ पुण्डरीकाक्षः पुनातु ।। चंदन धारण कर पूर्वाभिमुख सव्य होकर त्रिकुश हस्त देवतीर्थं से देव-तपर्ण करे :- ॐ तर्पणीया देवा आगच्छन्तु ; ॐ ब्रह्मा तृप्यताम्‌ । ॐ विष्णुस्तृप्यताम्‌ । ॐ रुद्रस्तृप्यताम्‌ । ॐ प्रजापतिस्तृप्यताम्‌ ।। ॐ देवा यक्षास्तथा नागा गन्घर्वाऽप्सरसोऽसुराः । क्रूराः सर्पाः सुपर्णाश्च तरवो जम्भकाः खगाः।। विद्याधरा जलाधारास्तथैवाकाश गामिनः । निराधाराश्च ये जीवाः पापे धर्मे रताश्च ये ।। तेषामाप्यायनायैतद्दीयते सलिलं मया ।। उत्तराभिमुख-निवीती (जनेउ को कठीवत कर) होकर ऋषि-तर्पण ऋषितीर्थ से करे :- ॐ सनकादय आगच्छन्तु : ॐ सनकश्च सनन्दश्च तृतीयश्च सनातनः । कपिलश्चासुरिश्चैव बोढुः पञ्चशिखस्तथा । ते सर्वे तृप्तिमायान्तुमद्दत्तेनाम्बुना सदा ।। “सुगम-श्राद्ध-विधि” पूर्वाभिमुख सव्य होकर पुनः देवतीर्थ से जल दे : ॐ मरीच्यादय आगच्छन्तु : ॐ मरीचिस्तृप्यताम्‌ । ॐ अत्रिस्त्यताम्‌ । ॐ अड्डिगरासतृप्यताम्‌ । ॐ पुलस्त्यस्तृप्यताम्‌ । ॐ पुलहस्तृप्यताम्‌ । ॐ क्रतुस्तृप्यताम्‌ । ॐ प्रचेतास्तृप्यताम्‌ । ॐ वशिष्ठस्तृयताम्‌ । ॐ भृगुस्तृप्यताम्‌ । ॐ नारदस्तृप्यताम्‌ ।। अपसव्य दक्षिणाभिमुख मोड़ा धारण कर पितृतीर्थं से सतिल जल दे : ॐ अग्निष्वात्तास्तृप्यतामिदं सतिलं जलं तेभ्यः स्वधा नमः ।। ३॥। ॐ सोमपास्तृप्यतामिदं सतिलं जलं तेभ्यः स्वधा नमः ।। 31। ॐ हविष्मन्तस्तृप्यतामिदं सतिलं जलं तेभ्यः स्वधा नमः ।। 3।। ॐ उष्मपास्तृप्यतामिदं सतिलं जलं तेभ्यः स्वधा नमः ।। 3॥। ॐ सुकालिनस्तृप्यतामिदं सतिलं जलं तेभ्यः स्वधा नमः ॥। ३।। ॐ बर्हिषदस्तृप्यतामिदं सतिलं जलं तेभ्यः स्वधा नमः ।। 3।। ॐ आज्यपास्तृप्यतामिदं सतिलं जलं तेभ्यः स्वधा नमः ।। 31। यम तर्पण : ॐ यमाय धर्मराजाय मृत्यवे चान्तकाय च । वैवस्वताय कालाय सर्वभूतक्षयाय च ॥। औदुम्बराय दध्नाय नीलाय परमेष्ठिने । वृकोदराय चित्राय चित्रगुप्ताय वै नमः।। ॐ चतुर्दशैते यमाः स्वस्ति कुर्वन्तु तर्पिताः ।। “सुगम-श्राद्ध-विधि” आगच्छन्तु मे पितरं इमं गृहंत्वपोऽञ्जलिम्‌ :- शर्मा तृप्तामिदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा ।। 3॥। गोत्र पितामह शर्मा तृप्तामिदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा ।। 31। गोत्र प्रपितामह शर्मा तृप्तामिदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा ।। 31। गोत्रा माता देवी तृप्तामिदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा ।। 1॥। गोत्रा पितामही देवी तृप्तामिदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा ।। 11 गोत्रा प्रपितामही देवी तृप्तामिदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा ।। 1।। गोत्र मातामह शर्मा तृप्तामिदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा ।। ३।। गोत्र प्रमातामह शर्मा तृप्तामिदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा ।। 3॥। गोत्र वृद्धप्रमातामह शर्मा तृप्तामिदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा ।। ३।। गोत्रा मातामही देवी तृप्तामिदं सतिलंजलं तस्यै स्वधा ।। 11। गोत्रा प्रमातामही देवी तृप्तामिदं सतिलंजलं तस्यै स्वधा ।। 11 गोत्रा वृद्धप्रमातामही देवी तृप्तामिदं सतिलंजलं तस्यै स्वधा ।। 11 ये बान्धवाऽबान्धवा वा येऽन्यजन्मनि बान्धवा । ते सर्वे तृप्तिमायान्तु यश््वास्मत्तोऽभिवाञ्छति।। “सुगम-श्राद्ध-विधि” ॐ ये मे कुले लुप्तपिण्डा पुत्र दारा विवर्जिताः । तेषां हि दत्तमक्षय्यमिदमस्तु तिलोदकं आनब्रह्मस्तम्ब पर्यन्तं देवर्षि पितृ मानवाः । तृप्यन्तु पितरः सर्वे मातृ मातामहादयः अतीत कुल कोटीनां सप्तद्वीप निवासिनाम्‌ । आब्रह्म भुवनाल्लोकादिदमस्तु तिलोदकम्‌ वस्त्र निष्पीडन बांयी ओर - ॐ ये चाऽस्माकं कुले जाता अपुत्रा गोत्रिणो मृताः। ते तृप्यन्तु मया दत्तं वस्त्र निष्पीडनोदकं भीष्मतर्पण : ॐ वैयाघ्रपदगोत्राय साङ्कृतिप्रवराय च । गड्गापुत्राय भीष्माय प्रदास्येहं तिलोदकम्‌ पूर्वाभिमुख सव्य होकर त्रिकुश हस्त सूर्य भगवान को अक्षत-चंदन-पुष्पादि युत जल का तीन अर्ध्य देवे - ॐ नमोविवस्वते ब्रह्मन्‌ भास्वते विष्णु तेजसे । जगत्सवित्रे शुचये नमस्ते कर्मदायिने ॐ एहि सूर्य सहस्रांशो तेजो राशे जगत्पते । अनुकम्पय मां भक्त्या गृहाणार्घ्यं दिवाकर ॐ आकृष्णेन रजसा वर्त्तमानो निवेशयन्नऽमृतं मर्त्य॑ च । हिरण्ययेण सविता रथेना देवोयाति भुवनानि पश्यन्‌ ।। एषोऽर्धः श्री सूर्यनारायणाय नमः नमस्कार करे - ॐ आदित्यस्यनमस्कारं ये कुर्वन्ति दिने दिने । जन्मान्तर सहस्रेषु दारिद्र्यं नोऽपजायते ।। ॐ विष्णुर्विषणु्हरिहरिः ।। “सुगम-श्राद्ध-विधि” “ छन्दोग तर्पण विधि ” पवित्रीकरण : पूर्वाभिमुख कुश धारण कर दाहिने हाथ में जल लेकर शरीर पर छिड़के : ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थाङ्गतोऽपिवा यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स बाह्याऽभ्यंतरः शुचिः। पुण्डरीकाक्षः पुनातु । ॐ पुण्डरीकाक्षः पुनातु ॥ चंदन धारण कर पूर्वाभिमुख सव्य होकर त्रिकुश हस्त देवतीर्थं से करे :- ॐ देवास्तृप्यन्ताम्‌ ।।3।। ॐ ऋषयस्तृप्यन्ताम्‌ ।।3।। अं प्रजापतिस्तृप्यताम्‌ ।(3।। अपसव्य दक्षिणाभिमुख मोड़ा धारण कर पितृतीर्थं से सतिल जल दे : आगच्छन्तु मे पितरं इमं गृह्णंत्वपोऽञ्जलिम्‌ :- शर्मा तृप्तामिदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा शर्मा तृप्तामिदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा गोत्र प्रपितामह शर्मा तृप्तामिदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा गोत्रा माता देवी तृप्तामिदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा गोत्रा पितामही देवी तृप्तामिदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा गोत्रा प्रपितामही देवी तृप्तामिदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ “सुगम-श्राद्ध-विधि” 49 गोत्र मातामह शर्मा तृप्तामिदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा ।। 3॥। गोत्र प्रमातामह शर्मा तृप्तामिदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा ।। ३।। गोत्र वृद्धप्रमातामह शर्मा तृप्तामिदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा ।। ३।। गोत्रा मातामही देवी तृप्तामिदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा ।। 1॥। गोत्रा प्रमातामही देवी तृप्तामिदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा ।। 1।। गोत्रा वृद्धप्रमातामही देवी तृप्तामिदं सतिलंजलं तस्यै स्वधा ।। 1।। ॐ ये बान्धवाऽबान्धवा वा येऽन्यजन्मनि बान्धवा । ते सर्वे तृप्तिमायान्तु यश्चास्मत्तोऽभिवाञ्छति।। ॐ ये मे कुले लुप्तपिण्डा पुत्र दारा विवर्जिताः । तेषां हि दत्तमक्षय्यमिदमस्तु तिलोदकं ॥। आन्रह्मस्तम्ब पर्यन्तं देवर्षि पितृ मानवाः । तृप्यन्तु पितरः सर्वे मातृ मातामहादयः ।। अतीत कुल कोटीनां सप्तद्वीप निवासिनाम्‌ । आतब्रह्म भुवनाल्लोकादिदमस्तु तिलोदकम्‌ ॥ वस्त्र निष्पीडन बांयी ओर - ॐ ये चाऽस्माकं कुले जाता अपुत्रा गोत्रिणो मृताः। ते तृप्यन्तु मया दत्तं वस्त्र निष्पीडनोदकं ।। पूर्वाभिमुख सव्य होकर त्रिकुश हस्त सूर्य भगवान को अक्षत-चंदन-पुष्पादि युत जल का तीन अर्ध्य देवे - ॐ नमोविवस्वते ब्रह्मन्‌ भास्वते विष्णु तेजसे । जगत्सवित्रे शुचये नमस्ते कर्मदायिने ।। “सुगम-श्राद्ध-विधि” ॐ एहि सूर्य सहस्रांशो तेजो राशे जगत्पते । अनुकम्पय मां भक्त्या गुहाणाघ्य॑ दिवाकर ।। ॐ उदुत्यञ्जातवेदसं देवं वहन्तिकेतवः । दुशे विश्वाय सूर्यम्‌ ।। एषोऽर्घः श्रीसूर्यनारायणाय नमः।। नमस्कार करे - ॐ आदित्यस्यनमस्कारं ये वुर्वन्ति दिने दिने । जन्मान्तर सहस्रेषु दारिद्रयं नोऽपजायते ।। ।। ॐ विष्णुर्विषणु्हरिहरिः ।। विशेष : श्राद्धांग तर्पण में मृतक को तिल तोयाञ्जलि दिया जाएगा । यथा :- ॐ अद्य ..... गोत्र पिता ...... प्रेत (.....गोत्रा माता प्रेते.....) एष तिल तोयाञ्जलि ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। पंचदेवता एवं विष्णु पूजन नित्यकर्मानुसार संध्या-तर्पण के बाद पंचदेवता और विष्णु पूजन किया जाता है । चूंकि संध्या और तर्पण विधि पुस्तक में दे दी गई है, तो पंचदेवता व विष्णु पूजन विधि भी संक्षेपतः दे देना ही उचित है । पंचदेवता पूजनांतर विष्णु पूजन विषयक जिज्ञासा लोगों के मन में प्रायः उठा करती है :- कि जब पंचदेवता में विष्णु की पूजा करते हैं तो पुनः विष्णु पूजन का क्या कारण है ? कुछ विद्वान इस प्रकार समाधान करते हैं कि :- विष्णु की प्रधानता है अथवा देवताओं में विष्णु को प्रधान माना “सुगम-श्राद्ध-विधि” 51 जाता है; इसी कारण उनकी दुबारा विशेष पूजा करते हैं । लेकिन यह विचार शत-प्रतिशत भ्रामक है। कारण कि मिथिला शक्तिभूमि है एवं हमलोग शक्ति को पूर्वकाल से ही प्रधानता देते आए हैं, और उपासना करते रहे हैं । प्रायः सभी मिथिलावासी कुलदेवता के रूप में शक्ति की ही अराधना करते हैं । यह प्रश्न इस कारण उठता है कि अधिकांशतया विद्धद्वगकण पंचदेवता का निर्णय इस श्लोक से करते हैं : आदित्यं गणनाथं च देवीं रुद्रश्च केशवम्‌ । पञ्चदेवत्वमित्युक्तं सर्व कर्मसु पूजयेत्‌ ।। जबकि यह प्रमाण मैथिलेत्तरों के लिए है और वही मानते आए हैं । मैथिलों की मान्यता व प्रमाण कुछ भिन्न है । ब्रह्मवैवर्त पुराण का श्लोक है : गणेशं च दिनेशं च वहिं विष्णुं शिवं शिवाम्‌ । सम्पूज्य देवषट्कं तु सोऽधिकारी च पूजने।। अर्थात्‌ गणेश, सूर्य, अग्नि, विष्णु, शिव और शिवा(अम्बिका) इन छहों की पूजा प्रतिदिन करनी चाहिए । अतः पंचदेवता का पूजन से तात्पर्य गणेश, सूर्य, अग्नि, शिव एवं शिवा इन पांच देवताओं की पूजा है । इनमें विष्णु की गणना नहीं होती है जिस कारण हम मिथिलावासी पंचदेवता पूजन के अन्तर विष्णु की पूजा छठे देवता के रूप में अलग करते हैं । स्त्रियों के लिए विष्णु और शिवा का स्थान परिवर्तन होता है जिस कारण स्त्रियों के लिए विष्णु सम्मिलित पंचदेवता पूजनोपरांत अलग से शिवा(गौरी) की पूजा का विधान है । पंचदेवता एवं विष्णु वास्ते ताम्बूलादि यथास्थान लगाकर आचमन, पवित्रीकरण करके पूजन करे - “सुगम-श्राद्ध-विधि” पंचदेवता पूजा इदं अक्षतं ॐ सूर्यादि पंचदेवताः इहाऽगच्छत इहतिष्ठत । जल : एतानि पाद्यार्घाचमनीयस्नानीयपुनराचमनीयानि ॐ सूर्यादि पंचदेवताभ्यो नमः । इदं चन्दनं अनुलेपनं ॐ सूर्यादि पंचदेवताभ्यो नमः । पुष्प : इदं पुष्पं ॐ सूर्यादि पंचदेवताभ्यो नमः । इदं अक्षतं ॐ सूर्यादि पंचदेवताभ्यो नमः । जल : एतानि गन्धपुष्पधूपदीपताम्बूल यथाभाग नैवेद्यानि ॐ सूर्यादि पंचदेवताभ्यो नमः । जल : आचमनीयं ॐ सूर्यादि पंचदेवताभ्यो नमः । पुष्पांजलि : एष पुष्पांजलि ॐ सूर्यादि पंचदेवताभ्यो नमः । विष्णु पूजा तिल जौ जल : एते यवतिलाः ॐ भूर्भुवः स्वः भगवन्‌ श्री विष्णो इहाऽगच्छ इह तिष्ठ । जल : एतानि पद्यार्घाचमीनयस्नानीयपुनराचमनीयानि ॐ भूर्भुवःस्वः भगवते श्री विष्णवे नमः। चन्दन : इदं चन्दनं अनुलेपनं ॐ भूर्भुवः स्वः भगवते श्री विष्णवे नमः । “सुगम-श्राद्ध-विधि” पुष्प : इदं पुष्पं ॐ भूर्भुवः स्वः भगवते श्री विष्णवे नमः । तुलसी : इदं समंजरी तुलसीदलं ॐ भूर्भुवः स्वः भगवते श्री विष्णवे नमः । तिल जी : एते यवतिलाः ॐ भूर्भुवः स्वः भगवते श्री विष्णवे नमः । तुलसी जल : एतानि गन्धपुष्पधुपदीपताम्बूल यथाभाग नैवेद्यं ॐ भूर्भुवः स्वः भगवते श्री विष्णवे नमः। जल : आचमनीयं ॐ भूर्भुवः स्वः भगवते श्री विष्णवे नमः । पुष्पांजलि : एष पुष्पांजलि ॐ भूर्भुवः स्वः भगवते श्री विष्णवे नमः । विसर्जन : ॐ सूर्यादि पंचदेवताः पूजितास्थ प्रसीदत प्रसन्नाः भवत क्षमध्वं स्व स्व स्थानानि गच्छत । ॐ भूर्भुवः स्वः भगवन्‌ श्री विष्णो पूजितोसि प्रसीद प्रसन्नो भव क्षमस्व स्व स्थानं गच्छ । पूजनोपरांत तत्काल विसर्जन कर देना ही उचित है न कि श्राद्धोपरांत, कारण कि नित्यकर्मांगों के समापन के बाद ही नैमित्तिकादि कर्म आरंभ करना चाहिए । पंचदेवता एवं विष्णु के पूजनोपरांत विसर्जन करने पर ही नित्य कर्मों का समापन होगा। श्राद्धकाल में इनका विसर्जन न करने संबंधि कोई प्रमाण नहीं मिलता है और न ही इन देवताओं के कर्मसाक्षी होने का प्रमाण है ताकि कर्मसाक्षी होने के कारण श्राद्ध समाप्ति तक इनका विसर्जन नहीं हो । तस्माच्छ्राद्धे पञ्चगर्यैर्लेप्या शोध्या तथोल्मुकैः । गौरमृत्तिकयाच्छन्रा प्रकीर्णा तिलसर्षपैः ।। पंचगव्यप्राशनमंत्र : यत्‌ त्वगस्थितं पापं देहेतिष्ठतिमामके। प्राशनात्पञ्चगव्यस्य दहत्यग्निःइवेन्धनम्‌ ।। “सुगम-श्राद्ध-विधि” पंचदान 1. शय्यादान ॐ सोपकरणशय्यायै नमः ।। 3।। शय्या पर तीन बार इस मंत्र से पुष्पाक्षत छींटे । ॐ ब्राह्मणाय नमः ।। 31। ब्राह्मण के पैर की पुष्पाक्षत से तीन बार पूजा करे । ॐ इमां सोपकरणां शय्यां ददानि ।। इस मंत्र से ब्राह्मण के दाहिने हाथ में जल दे दे , शय्या पर कुशेदक छिड़के । पुनः तिल, जल लेकर इस मंत्र से त्रिकुशा व तिल जल ब्राह्मण को दे - ॐ अद्य अशौचान्त दितीये $हून' गोत्रस्य पितुः ....... प्रेतस्य (......गोत्रायाः मातुः प्रेतायाः ) स्वर्गकाम इमां सोपकरणां शय्यां विष्णु दैवताम्‌ गोत्राय शर्मणे ब्राह्मणाय तुभ्यमहं सम्प्रददे ।। ब्राह्मण कुशजलादि ग्रहण कर “ॐ स्वस्ति ? कहें । 1. शय्यायां काञ्चने चैव गोदाने वृषभस्य च । द्विजदम्पत्योः पूजायां अद्याशौचान्त भाषितम्‌ ॥ अद्य अशीचान्त पद का प्रयोग आदश्राद्ध में मात्र पांच जगह करने का विधान है : शय्यादान, काञ्चनपुरुष दान, गोदान वृषोर्सग और द्विजदम्पती के पूजन में । इन पांच जगहों के अतिरिक्त अन्यत्र “अशीचान्त' पद का प्रयोग नहीं होता है । शय्या विशेष : देवशय्याशिरः प्राच्यां मखशय्या तु दक्षिणे । पश्चिमे तीर्थशय्या तु प्रेतशय्या शिरोत्तरे ।। - दानसंग्रह “सुगम-श्राद्ध-विधि” पुनः त्रिकुश, तिल, जल लेकर दक्षिणा करे - ॐ अद्य कृतैतत्सोपकरण शय्यादान प्रतिष्ठार्थं एतावतू द्रव्यमूल्यकं हिरण्यं अग्नि दैवतं गोत्राय शर्मणे ब्राह्मणाय दक्षिणां तुभ्यमहं सम्प्रददे' । । ब्राह्मण “ॐ स्वस्ति’ कहकर दक्षिणा ले ले व शय्या स्पर्श करे । 2. काञ्चनपुरुषदान ॐ फलवस्त्रसमन्वित काञ्चनपुरुषाय नमः ।। 3 ।। काञ्चनपुरुष पर तीन बार इस मंत्र से पुष्पाक्षत छींटे । ॐ ब्राह्मणाय नमः ।। 3॥। ब्राह्मण के पैर की पुष्पाक्षत से तीन बार पूजा करे । ॐ इदं फलवसत्रसमन्वितं काञ्चनपुरुषं ददानि ।। ब्राह्मण को तिल-जल दे । काञ्चनपुरुष को कुशोदक से सिक्त करे । ॐ अद्य अशौचान्त द्वितीयेऽह्नि स्वर्गकाम इदं फलवस्त्र समन्वितकाञ्चनपुरुषं विष्णु गोत्राय शर्मणे ब्राह्मणाय तुभ्यमहं सम्प्रददे ।। ब्राह्मण कुशजलादि ग्रहण कर 'ॐ स्वस्ति ” कहें । पुनः त्रिकुश, तिल, जल लेकर दक्षिणा करे - 1. दक्षिणाद्रव्याभाव में - “ यद्दीयमान दक्षिणां दातुं अहं उत्सृज्ये ' पढ़ें । “सुगम-श्राद्ध-विधि” 56 दक्षिणा : ॐ अद्य कृतैतत्‌ फलवस्त्रसमन्वित काञ्चनपुरुष दान प्रतिष्ठार्थम्‌ एतावत्‌ द्रव्यमूल्यक हिरण्यं अग्नि दैवतं गोत्राय शर्मणे ब्राह्मणाय दक्षिणां तुभ्यमहं सम्प्रददे ।। ब्राह्मण ॐ स्वस्ति’ कहकर दक्षिणा ले ले । 3. गोदान ॐ सोपकरण (सवत्स) गव्यै नमः ।। 3।। इस मंत्र से गाय की तीन बार पुष्पाक्षत पूजा करे । ॐ ब्राह्मणाय नमः ।। 3॥॥। ब्राह्मण की पुष्पाक्षत से तीन बार पूजा करे । ॐ इमां सोपकरणां (सवत्सां) गवीम्‌ ददानि ।। ब्राह्मण को तिल-जल दे । गाय को कुशोदक से सिक्त करे । ॐ अद्य अशीचान्त स्वर्गप्राप्तिकाम इमां सोपकरणां (सवत्सां) गवीम्‌ रुद्रदैवतां शर्मणे ब्राह्मणाय तुभ्यमहं सम्प्रददे ।। ब्राह्मण कुशजलादि ग्रहण कर 'ॐ स्वस्ति ” कहें । पुनः त्रिकुश, तिल, जल लेकर दक्षिणा करे - ॐ अद्य कृतैतत्सोपकरण (सवत्स) गवीदान प्रतिष्ठार्थं एतावत्‌ द्रव्यमूल्यकहिरण्यं शर्मणे ब्राह्मणाय दक्षिणां तुभ्यमहं सम्प्रददे ।। “सुगम-श्राद्ध-विधि” 57 दान लेने बाले ब्राह्मण 'ॐ स्वस्ति’ कहकर गाय के पूंछ को पकर कर यह मंत्र पढ़े - वाजसनेयि : ॐ कोऽदात्‌ । कस्माऽअदात्‌ कामोऽदात्‌ कामायाऽदात्‌ कामोदाता कामः प्रतिग्रहीता कामैतत्ते।। छन्दोगी : ऊँ क इदं कस्माऽअदात्‌ कामः कामायाऽदात्‌ कामो दाता कामः प्रतिग्रहीता कामः समुद्रमाविशत्‌ कामेन त्वा प्रतिगृहूणामि कामैतत्ते । गोमूल्यदान ॐ एतावत्‌ द्रव्यमूल्यक (सवत्स) गव्यै नमः ।। 3।। ॐ ब्राह्मणाय नमः ।। 31। ॐ द्रव्यमूल्योपकल्पितां गवीम्‌ ददानि । जलेन सिक्चा । ॐ अद्य अशीचान्त द्वितीयेऽहिन स्वर्गकाम एतावम्‌ द्रव्यमूल्यक (सवत्सां) गवीम्‌ रुद्रदैवतां गोत्राय शर्मणे ब्राह्मणाय तुभ्यमहं सम्प्रददे ।। ब्राह्मण कुशजलादि ग्रहण कर “ स्वस्ति ” कहें । पुनः त्रिकुश, तिल, जल लेकर दक्षिणा करे - ॐ अद्य कृतैतत्‌ द्रव्यमूल्योपकल्पित सवत्स गवीदान प्रतिष्ठार्थं एतावत्‌ द्रव्यमूल्यक हिरण्यं .... गोत्राय शर्मणे ब्राह्मणाय दक्षिणां तुभ्यमहं सम्प्रददे ।। ब्राह्मण “ॐ स्वस्ति’ कहकर दक्षिणा ले ले । “सुगम-श्राद्ध-विधि” 4. छत्र दान ॐ छत्राय नमः ।। 3।। छाता पर तीन बार इस मंत्र से पुष्पाक्षत छींटे । ॐ ब्राह्मणाय नमः ।। 3॥। ब्राह्मण के पैर की पुष्पाक्षत से तीन बार पूजा करे । ॐ इदं छत्रं ददानि ।। ब्राह्मण को तिल-जल दे । काञ्चनपुरुष को कुशोदक से सिक्त करे । ॐ अद्य गोत्रस्य पितुः ........ प्रेतस्य ( गोत्रायाः मातुः ....... प्रेतायाः) आवरणकाम इदं छत्रं उत्तानांगिरो दैवतम्‌ गोत्राय शर्मणे ब्राह्मणाय तुभ्यमहं सम्प्रददे ।। ब्राह्मण कुशजलादि ग्रहण कर 'ॐ स्वस्ति ” कहें । पुनः त्रिकुश, तिल, जल लेकर दक्षिणा करे - ॐ अद्य कृतैतत्‌ छत्र दान प्रतिष्ठार्थम्‌ एतावत्‌ द्रव्यमूल्यक हिरण्यं अग्नि दैवतं शर्मणे ब्राह्मणाय दक्षिणां तुभ्यमहं सम्प्रददे ।। ब्राह्मण ॐ स्वस्ति’ कहकर दक्षिणा ले ले । 5. उपानद्‌ दानः ॐ उपानद्‌भ्यां नमः ।। 3।। जूता पर तीन बार इस मंत्र से पुष्पाक्षत छींटे । ॐ ब्राह्मणाय नमः ।। 3॥। ब्राह्मण के पैर की पुष्पाक्षत से तीन बार पूजा करे । 1. स्त्री श्राद्ध में जूते की जगह चप्पल होने पर ऊ पादत्राणाभ्यां नमः या ॐ अनुपदीभ्यां नमः करे ।। “सुगम-श्राद्ध-विधि” 59 उपानहौ ददानि ॥। ब्राह्मण को तिल-जल दे । काज्चनपुरुष को कुशोदक से सिक्त करे । तप्तबालुकासिकण्टकित भूदुर्ग संतरनकाम इमे उपानहौ शर्मणे ब्राह्मणाय तुभ्यमहं सम्प्रददे ।। ब्राह्मण कुशजलादि ग्रहण कर “ स्वस्ति ” कहें । पुनः त्रिकुश, तिल, जल लेकर दक्षिणा करे - ॐ अद्य कृतैतत्सोपकरण उपानद्‌ दान प्रतिष्ठार्थम्‌ एतावतू द्रव्यमूल्यकहिरण्यं अग्निदैवतं शर्मणे ब्राह्मणाय दक्षिणां तुभ्यमहं सम्प्रददे ।। ब्राह्मण ॐ स्वस्ति’ कहकर दक्षिणा ले ले । यहां क्रमशः पंचदान दे दिये गये हैं । एकादशाह (आद्यश्राद्ध) को व्यवहारानुसार कराना चाहिए । मिथिलादेशीय व्यवहारानुकूल संकेत आद्यश्राद्ध में संकेत कर दिये गए हैं । व्यवहार में उत्सर्ग क्रम इस प्रकार है :- शय्या, काञ्चनपुरुष पाकपात्रान्नादि संग्रहित वस्तु, आद्य श्राद्धारम्भ करते हुए प्रेतासनोपरांत छाता और जूता तथा दक्षिणापूर्व गोदान । पुस्तक में आद्यश्राद्ध व मासिकश्राद्ध सम्मिलित रूप से दिये जा रहे हैं । एकादशाह को किया जाने वाला श्राद्ध आद्यश्राद्ध कहलाता है, अतः जहां-कहीं भी आद्य शब्द दिखे एकादशाह दिन किये जाने वाले श्राद्ध के बोधक होंगे । मासिकश्राद्ध ( द्वादशाह को 14 मासिक ) की अपेक्षा आद्यश्रा्ध ( एकादशाह को आद्यश्राद्ध ) में 5 विशेषता होती है- 1. आसन उत्सकर्गोपरांत छाता और जूता दान, 2. न्युब्जीकरणोपरांत आवाहन (इहलोक) 3. पिण्डार्चन के बाद पृथ्वी स्तुति, 4. दक्षिणापूर्वं गोदान और 5. दक्षिणा के उपरांत अग्निमुखदेवतर्पण तथा शेषान्न उत्सर्ग । “सुगम-श्राद्ध-विधि” 60 दिग्रक्षण मंत्र ॐ नमोनमस्ते गोविन्द ! पुराण पुररुषोत्तम । इदं श्राद्धं हृषीकेश रक्ष त्वं सर्वतो दिशः ।। अग्निष्वात्ताःपितृगणाः प्राचीं रक्षन्तु मे दिशम्‌। तथा बर्हिषदःपान्तु याम्यां ये पितरस्तथा ।। प्रतीचीमाज्यपाः तद्वदुदीचीमपि सोमपाः । ऊर्ध्वतस्त्वयमा रक्षेत्कव्यवाडनलो 5प्यधः ।। रक्षोभूत पिशाचेभ्यः तथैवासुर दोषतः । सर्वतश्चाधिपस्तेषां यमो क्षां करोतु मे ॥ वायुभूत पितृणां च तृप्तिर्भवति शाश्वती । य इदं श्राद्धकाले तु कुर्याद्वै पितृपञ्जरम्‌ ।। अक्षय्यं तद्रवेच्छ्राद्धं पितृभ्यः परिरक्षतु ।। मासिक क्रम मासिके दशगात्रे च श्राद्धे क्रम उदीरितः । प्रतीचीतः समारभ्य प्राच्यां परिसमापयेत्‌ । ूर्वतोयः प्रकूर्वीत प्रेतश्राद्धं तु मूढधीः । प्रेतत्त्व सुस्थिरं तस्य॒ दत्तैः पिण्डशतैरपि ।। श्राद्धपूर्व ध्यान श्राद्धारम्भे गयां ध्यात्वा ध्यात्वादेवं गदाधरम्‌। स्वपितृन्‌ मनसाध्यात्वा ततः श्राद्धं समारभेत्‌ ।। “सुगम-श्राद्ध-विधि” 61 वाजसनेयी अपात्रक आद्य(एकादशाह) व मासिक (द्वादशाह) श्राद्ध विधि श्वेतांगं श्वेतवस्त्रं सितकुसुमगणैः पूजितंश्वेतगन्धैः क्षीराब्धौ रत्नदीपैः सुरनरतिलकं रत्नसिंहासनस्थम्‌ । दोर्भिः पाशांकुशाब्जाभयवरमनसं चन्द्र मौलिंत्रिनेत्रम्‌ ध्याये च्छान्त्यर्थमीशं गणपतिमलं श्रीसमेतं प्रसन्नम्‌ ।। शान्तंशाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाण शान्तिप्रदं ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यंविभुम्‌ । रामाख्यंजगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यंहरिम्‌ वन्देऽहंकरुणाकरं रघुवरं भूपाल चूडामणिम्‌।। स्नानादिकोपरांत आत्मशुध्यर्थ पंचगव्यप्राशन, नित्यकर्म (संध्या,तर्पण,पंचदेवता और विष्णु का पूजन) करके श्राद्धकर्ता और पाककर्ता पवित्र मंडलकृत श्राद्धस्थला आवे, अंगारभ्रमण करके गोरी मिट्टी छिड़के। दिररक्षण कर पाक कर्म कर ले। पाककर्ता से श्राद्धकर्ता पूछे - “ॐ सिद्धम्‌” । रक्षादीप जलाकर श्राद्ध सामग्री यथाविधि स्थापित कर ले। त्रिराचमन, उर्ध्वपुण्ड्र करके पवित्रीधारण पूर्वक हाथ में जल लेकर आत्म-शुद्धि करे - लगने पर 15) मासिक श्राद्ध किया जाता है यह स्मरण रखना चाहिए । “सुगम-श्राद्ध-विधि” 62 ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थाङ्गतोऽपिवा यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यंतरः शुचिः । पुण्डरीकाक्षः पुनातु ।। ॐ पुण्डरीकाक्षः पुनातु ।। पवित्रीकरणोपरांत त्रिकुशा, तिल, जल लेकर प्रधान-संकल्प करे - गोत्रस्य पितुः ....... प्रेतस्य ( गोत्रायाः मातुः ...... ्रेतायाः) प्रेतत्व विमुक्तिकामः अद्यादि यथाकालं षोडश/सप्तदश श्राद्धानि अहं करिष्ये ।। | यह प्रधान संकल्प सिर्फ आद्यश्राद्ध को किया जाता है। यदि अगले ग्यारह महीने के अन्दर मलमास लगे तो सप्तदश पद प्रयुक्त होगा। संकल्प :- पूर्वाभिमुख त्रिकुशा, तिल, जल लेकर संकल्प करे - ॐ अद्य गोत्रस्य पितुः ....... प्रेतस्य प्रेतत्व विमुक्ति हेतु षोडश/सप्तदश श्राद्ध अंतर्गत आद्य/प्रथम/द्वितीय मासिक श्राद्धं अहं करिष्ये ।। तीन बार गायत्री जप करे । करबद्ध होकर तीन बार देवताभ्यः मंत्र पाठ करे - ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च । नमः स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमो नमः ।। आसन :- अपसव्य होकर दक्षिणाभिमुख पातितवामजानु मोडा, तिल, जल लेकर पूर्व सिक्त प्रेतासन का उत्सर्ग करे - ॐ अद्य.....गोत्र पितः.....प्रेत (....गोत्रे मातः....ते) इदं आसनं ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌।। “सुगम-श्राद्ध-विधि” आद्यश्राद्ध में आसनोत्तर आवरणकाम छत्र व तप्तबालुकासिकण्टकित भुदुर्गसंतरन काम उपानद्दान होता है, जिसके देवता उत्तानांगिर हैं । तिलविकिरण :- ॐ अपहता असुरा रक्षा . सि वेदिषदः ।। भोजनपात्र पर तिल छिड़के । आवाहन :- ॐ आयन्तु नः पितरः सोम्यासो ऽअग्निष्वात्ताः पथिभिर्देवयानैः । अस्मिन्यज्ञे स्वधया मदन्तो ऽधिब्रुवन्तु ते ऽवन्त्वस्मान्‌ ।। अर्ध्यस्थापन :- अर्घ्य पूड़ा में पवित्री (कुश) देकर इन दोनों मंत्रों से जल एवं तिल दें - ॐ शन्नो देवीरभिष्टय ऽआपो भवन्तु पीतये । शंय्योरभि स्रवन्तु नः ।। (जल) ॐ तिलोऽसि सोमदेवत्यो गोसवो देवनिर्मितः । प्रलमद्विः पृक्तः स्वधया पितृन्‌ लोकान्‌ प्रीणाहि नः स्वाहा ।। (तिल) फूल और चन्दन भी अर्ध्यपूड़ा में दे दे । अर्ध्यपूड़ा बाएं हाथ में लेकर पूड़ा से कुश निकाल कर भोजनपात्र पर रखकर जल से सिक्त कर दें । अर्ध्याभिमंत्रण :- फिर दाहिने हाथ से बाएं हाथ में स्थित अर्ध्यपूडा को ढंककर यह मंत्र पढे - ॐ या दिव्या आपः पयसा सम्बभूबुर्या आन्तरिक्षा उत पार्थिवीर्याः । हिरण्यवर्णा यज्ञियास्ता न आपः शिवाः श ` स्योनाः सुहवा भवन्तु ।। “सुगम-श्राद्ध-विधि” 64 अर्ध्य :- मो.ति.जल लेकर अर्ध्य का उत्सर्जन करे - ॐ अद्य .......... गोत्र पितः ........... प्रेत इदं अर्घ्य ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। पूडा का जल (अर्ध्य) भोजनपात्रस्थित कुश पर दक्षिणाग्र दे दे । न्युब्जीकरण : कुश को पूर्ववत्‌ पूड़ा में रखकर प्रेतासन से पश्चिम अधोमुख कर दे और ये मंत्र पढ़े - ॐ पित्रे (मात्रे) स्थानमसि । दक्षिणा देने तक उस पूड़ा को नहीं हिलावे । आद्य श्राद्ध में तिल बिखेर कर भूमिपर रखे त्रिकुश पर दोनों हाथ रख कर निम्न मंत्र से प्रेत का आवाहन करें - ॐ इह लोकं परित्यज्य गतोऽसि परमां || गन्धादि उत्सर्ग :- मो.ति.जल लेकर वस्त्रगन्धादि का उत्सर्ग करे - ॐ अद्य ...... गोत्र पितः ...... प्रेत एतानि गन्थपुष्पधूपदीपताम्बूलयज्ञोपवीता 55च्छादनानि/ विद्यमानोपकरणानि ते मया दीयन्ते तवोपतिष्ठन्ताम्‌ ।। प्रेतासन व भोजनपत्र के चारों ओर जल से वामावर्त मण्डल करके अन्नादि (भात,सब्जी,धी,मधु) परोसे । भूस्वामि अन्नदान :- मो.ति.जल लेकर भूस्वामि के लिए पिण्डवेदी के पूर्व भाग में अन्नादि दे - ॐ इदमन्नम्‌ एतद्‌ भूस्वामि पितृभ्यो नमः ।। मधुप्रक्षेप (व्यवहारात्‌ अन्नस्पर्श) :- त्रिकुशा लेकर भोजनपात्र के मधुयुक्त अन्न को अधोमुखी दाहिने हाथ से छूए - “सुगम-श्राद्ध-विधि” 65 ॐ मधुव्वाता ऋतायते मधुक्षरन्ति सिंधवः माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः मधुनक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थित ` रजः । मधुद्यौरस्तु नः पिता मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमाँ2 अस्तु सूर्यः। माध्वीर्गावो भवन्तु नः।। ॐ मधु मधु मधु ।। पात्रालम्भन :- दाहिने हाथ के नीचे अधोमुख कर बायां हाथ लगाकर भोजनपात्र स्पर्श करते हुए यह मंत्र पढे - ॐ पृथिवी ते पात्रं द्यौरपिधानं ब्राह्मणस्य मुखेऽअमृतेऽअमृतं जुहोमि स्वाहा । ॐ इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम्‌ । समूढ़मस्य पा . सुरे । ॐ कृष्ण कव्यमिदं रक्षमदीयम्‌ ।। अवगाहन :- बांये हाथ को भोजनपात्र में लगाए रखते हुए ही दाहिने हाथ के अंगूठा से भोजनपात्र का अन्न पूड़ा का जल, घी और फिर अन्न छूए - ॐ इदमन्नम्‌ । (अन्न) । ॐ इमा आपः । (जल)। ॐ इदमाज्यम्‌ । (घी)। ॐ इदं हविः । (अन्न) तिलविकिरण :- ॐ अपहता असुरा रक्षा . सि वेदिषदः । इस मंत्र से अन्न पर तिल छिड़के । अन्नदान :- दाहिने हाथ में मो.ति.जल लेकर प्रेतान्न का उत्सर्ग करे - ॐ अद्य ....... गोत्र पितः ........ प्रेत इदमन्नं सोपकरणं ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। बाएं हाथ को हटाकर पूर्वा0सव्य हो तीन बार गायत्री जप करे। दक्षि0 अप0 'ॐ मधुमधुमधु' पढकर निम्न मंत्र पढे - ॐ अन्नहीनं क्रियाहीनं विधिहीनं च यद्रवेत्‌ तत्‌ सर्वम्‌ अछिद्रमस्तु ।। “सुगम-श्राद्ध-विधि” 66 पूर्वा0 सव्य होकर गायत्री जप करते हुए आसन के नीचे त्रिकुशा ( संकल्प वाला ) देकर दक्षि0 अपसव्य होकर फिर ‘ॐ मधुमधु मधु ” पाठ कर कृणुष्वपाजादि सूक्त पढे - ॐ कृणुष्वपाजः प्रसितिं न पृथ्वीं याहि राजे वामवाँ 2 इभेन । तृष्वीमनु प्रसितिं द्रूणानो ऽस्तासि विध्य रक्षसस्तपिठैः । तव भ्रमासऽआशुया पतन्त्यनुस्पृश धृषता शोशुचानः तपू ˆ ष्यग्ने जुहूवा पतङ्गानसन्दितो विसृज विष्वगुल्काः । प्रतिस्पशो विसृज तूर्णितमो भवा पायुर्विशोऽअस्याऽअदब्धः । यो नो दूरेऽअघस _ सो योऽअन्त्यग्ने माकिष्टे व्यथिरादधर्षीत्‌ । उदग्ने तिष्ठ प्रत्यातनुष्वन्यमित्राँ 2 ओषतात्तिग्महेते । यो नोऽअराति ` समिधानचक्रे नीचा तं धक्ष्यत सन्न शुष्कम्‌ । ऊर्ध्वो भव प्रति विध्याध्यस्मदाविष्कृणुष्व दैव्यान्यग्ने । अवस्थिरा तनुहि यातुजूनां जामिमजामिं प्रमृणीहि शत्रून्‌ ।। भोजनपात्र पर तिल छिड़क दे । फिर पढ़े - ॐ उदीरतामवर उत्परास उन्मध्यमाः पितरः सौम्यासः । असुंयऽईयुरवृका ऋतज्ञास्ते नोऽवन्तु पितरो हवेषु । अड््गिरसो नः पितरो नवग्वा अथर्वाणो भृगवः सोम्यासः तेषां वय सुमतौ यज्ञियानामपि भद्रे सौमनसे स्याम । ये नः पूर्वे पितरः सोम्यासोऽअनूहिरे । सोमपीथं वसिष्ठाः तेभिर्य्यमः स _ रराणो हवी _ ष्युशत्नुशद्रिः प्रतिकाममत्तु ।। “सुगम-श्राद्ध-विधि” 67 ॐ सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्‌ । स भूमि . सर्वतस्पृत्वात्यतिष्ठद्दशांगुलम्‌ ।। सन्ति देवाः ।। ॐ आशु शिशानो वृषभो न भीमो घनाघनः क्षोभणश्चर्षणीनाम्‌ । संक्रन्दनोऽनिमिष एकवीरः शत सेना अजयत्‌ साकमिन्द्रः ।। ॐ नमःशम्भवाय च मयोभवाय च नमःशंकराय च मयस्कराय च नमःशिवाय च शिवतराय च।। ॐ नमस्तुभ्यं विरूपाक्ष नमस्तेऽनेकचक्षुषे । नमः पिनाकहस्ताय वज्रहस्ताय वै नमः ।। ॐ सप्तव्याधा दशार्णेषु मृगाः कालञ्जरे गिरौ । चक्रवाकाः शरद्वीपे हंसाः सरसि मानसे ।। तेऽपि जाताः कुरुक्षेत्रे ब्राह्मणा वेदपारगाः। प्रस्थिता दूरमध्वानं यूयं तेभ्योऽवसीदथ ॥ ॐ रुची रुची रुचिः।। विकिरदान :- वेदी के पश्चिम त्रिकुश रखकर जल से सिक्त कर दे । एक पूड़ा में अन्नादि लेकर सिक्त कर मोड़ा के जड़ से सहारा देकर त्रिकुश पर बांए हाथ के पितृतीर्थं से दे - ॐ अनग्निदग्धाश्च ये जीवा ये प्रदग्धाः कुले मम । भूमौ दत्तेन तृप्यन्तु तृप्ता यान्तु पराङ्गतिम्‌ ।। त्रिकुश धारण कर पूर्वा0 सव्य हो आचमन कर ““ॐ विष्णुर्वष्णुरिर्हरिः” पढ़कर तीन बार गायत्री जप कर दक्षि0 अप0 होकर “ॐ मधुमधुमधु' पढ़े । उल्लेखन : बालुकामयी वेदी को जल से सिक्त कर पेता के जड़ से वेदी पर प्रादेशमात्र रेखा दोनों हाथों से खींचे - “सुगम-श्राद्ध-विधि” ॐ अपहता असुरा रक्षा . सि वेदिषदः ।। अंगारश्रमण :- रेखापर आग घुमाते हुए वेदी के दक्षिण इस मंत्र से गिरा दे - ॐ ये रूपाणि प्रतिमुञ्चमाना असुराः सन्तः स्वधया चरन्ति । परापुरो निपुरो ये भरन्त्यम्निष्टल्लोकात्‌ प्रणुदात्यस्मात्‌ ।। प्रादेशप्रमाण रेखा पर नौ छिन्नमूल कुश रखकर उसे जल से सिक्त कर दे । पूर्वा0 सव्य होकर तीन बार देवताभ्यः मंत्र का पाठ करे - ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च । नमः स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमो नमः ।। अत्रावन :- अप0 दक्षि0 बाएं हाथ में तिल, जल, पुष्प, चंदन युक्त एक पूड़ा लेकर दाहिने हाथ में मो.ति.जल ले - गोत्र पितः ........ प्रेत अत्रावने निक्ष्व ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। उत्सर्ग कर पूड़ा का जलादि दाहिने हाथ के पितृतीर्थ से वेदी के कुशों पर गिराकर पूड़ा में कुछ जल शेष रखे (प्रत्यवन वास्ते) । पिण्डदान :- बिल्वप्रमाण पिण्ड बनाकर बाएं हाथ में लेकर मो.ति.जल से पिण्डोत्सर्ग करे - Se गोत्र पितः .......... प्रेत एष पिण्डस्ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। दाहिने हाथ के पितृ तीर्थ से पिण्ड को वेदी के कुशों पर रखकर पिण्डतलस्थ कुशों में हाथ पोछे । “सुगम-श्राद्ध-विधि” 69 पूर्वा सव्य हो दो बार आचमन कर हरिस्मरण कर ले । अप0 दक्षि0 हो करबद्ध उत्तर मुंह कर अत्र पितर मंत्र से श्वास ले, सांस को रोक कर सूर्यस्वरूप पितर का ध्यान करे व अमीमदत से पश्चिम में सांस छोड़े। ॐ अत्र पितर्मादयस्व यथाभाग मा वृषायस्व ।। श्वास ले । ॐ अमीमदत पिता यथाभाग मा वृषायिष्ट ।। पश्चिमाभिमुख श्वास छोड़े । प्रत्यवन :- मोड़ा, तिल, जल ले प्रत्यवन (अत्रावन का अवशेष जल) का उत्सर्ग करे - गोत्र पितः ....... प्रेत अत्र प्रत्यवने निक्ष्व ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌।। उत्सर्ग कर पूड़ा का जल (प्रत्यवन) दाहिने हाथ के पितृतीर्थ से पिण्ड पर दे दे । दाहिने कोहनी से नींवी (डांरकडोर) को ससारे। पिण्डपूजन :- पूर्वा सव्य हो आचमन कर कर अप0दक्षि0 सूता को दोनो हाथ से पकरकर इस मंत्र से पिण्ड पर दे- ॐ एतत्ते पितर्वासः/मातर्वासः ।। मो.ति.जल लेकर सूत्र का उत्सर्ग करे - गोत्र पितः ............ प्रेत एतद्वासस्ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। पितर का ध्यान करते हुए पिण्ड पर पान, सुपारी, फूल, चन्दनादि चढ़ाकर पिण्ड के चारों ओर पिण्ड शेषान्न अप्रदक्षिण क्रम से बिखेरे । अगले मंत्रो से प्रेतान्न पर जल, फूल और अक्षत चढ़ाये - ॐ शिवा आपः सन्तु ।। प्रेतान्न पर जल छिड़के । “सुगम-श्राद्ध-विधि” ॐ सौमनस्यमस्तु ।। रत्न पर फूल चढ़ाए । ॐ अक्षतंचारिष्टमस्तु ।। प्रेता्न पर अक्षत चढ़ाए । आद्य श्राद्ध में एक पूड़ा में जल, तिल, घी, मधु, चंदन, फूल देकर पिण्डवेदी पर रख कर अथवा कल्पना करते हुए दोनों हाथ भूमिपर रखकर नत होकर यह मंत्र पढ़े - ॐ नमो नमो मेदिनी लोकधात्रि उर्व्वि महिशैलगिरिधारिणी धरिणि नमः । धारिणि काश्यपि जगत्रतिष्ठे वसुधे नमोऽस्तु वैष्णवि भूतधात्रि ।। नमोऽस्तु ते सर्वरसप्रतिष्ठे निवापनावीचि नमो नमोऽस्तु ते ॥ अक्षय्योदक :- मो.ति.जल ले मधु, घी, तिल मिश्रित जल भरे पूड़ा का उत्सर्ग करे - गोत्रस्य पितुः ......... प्रेतस्य ( गोत्रायाः मातुः ...... ्रेतायाः) दत्तैतदन्न पानादिकमुपतिष्ठताम्‌ ।। दाहिने हाथ के पितृतीर्थ से अक्षय्योदक (पूड़ा का जल) पिण्ड पर गिरावे । जलधारा :- पूर्वा0 सव्य हो दूसरे पूड़े में जल लेकर दक्षिण ओर देखते हुए इस मंत्र से पिण्ड पर पूर्वाग्र जलधारा दे- ॐ अघोरः पिताऽस्तु/ अघोरा माताऽस्तु ।। “सुगम-श्राद्ध-विधि” 71 आशीषप्रार्थना :- पुनः पूर्वा0 प्रणाम कर दक्षिण देखते हुए पढ़े - ॐ गोत्रं नो वर्धतां दातारो नोऽभिवर्धन्तां वेदाः सन्ततिरेव च । श्रद्धा च नो मा व्यग्मद्‌ बहुदेयञ्च च नोऽअस्तु । अन्नं च नो बहुभवेत्‌ अतिथींश्व लभेमहि । याचितारश्च नः सन्तु मा च याचिष्म कञ्चन । एताः सत्याशिषः सन्तु ।। अपसव्य दक्षि0 त्रिकुशा से पिण्डस्थ सूत्रादि को हटाकर एक त्रिकुशा पिण्ड पर दक्षिणाग्र करके रख दे । वारिधारा :- एक पूड़ा में जल तिल, पुष्प चंदन या दूध लेकर इस मंत्र से पिण्डथ कुश पर दक्षिणाग्र पर धारा दे- ॐ ऊज्जं वहन्तीरमृतं घृतं पयः कीलालं परिश्रुतम्‌ । स्वधास्थ तर्पयत्‌ मे पितरम्‌ ।। विनम्रभाव से पिण्ड को सूंघकर दोनों हाथ से थोड़ा उठाकर फिर रख दे । पिण्डतलस्थ कुशों को निकाल कर आग में दे दे । अधोमुखी अर्ध्यपूडा को हिला दे । दक्षिणा :- मोड़ा, तिल, जल लेकर कर्मदक्षिणा करे - गोत्रस्य पितुः ..... प्रेतस्य (..... गोत्रायाःमातुः ..... प्रेतायाः) कृतैतत्‌ आद्य/ मासिकश्राद्ध प्रतिष्ठार्थम्‌ एतावत्‌ द्रव्यमूल्यकरजतं चन्द्रदैवतं शर्मणे ब्राह्मणाय दक्षिणां तुभ्यमहं सम्प्रददे ।। (यद्दीयमानद्रव्यमूल्यकं दक्षिणां दातुमहमुतसुज्ये) इस मंत्र का पढ़कर ब्राह्मण को दक्षिणा दे और ब्राह्मण “ ॐ स्वस्ति ” कहकर दक्षिणा ले लें । “सुगम-श्राद्ध-विधि” आद्य श्राद्ध - पूर्वा0 सव्य यव सहित एक त्रिकुश पूर्वाग्र रखे । त्रिकुश-यव-जल लेकर यह मंत्र पढ़ते हुए त्रिकुशा पर गिरावे - ॐ अग्निमुखा देवातृप्यन्ताम्‌ ।। शेषान्न में जल फूल देकर उसका उत्सर्ग करे - ऊँ भूतेभ्यः एष बलिर्नमः ।। पूर्वा) सव्य आचमन कर तीन बार देवताभ्यः मंत्र पढे - ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च । नमः स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमो नमः ॥ अप0 द0 होकर दीप का बुझाकर हाथपैर धो, पूर्वा0 सव्य हो आचमन कर प्रमादातू मंत्र पढ़कर श्राद्ध सामग्री ब्राह्मण को दे- ॐ प्रमादात्कुर्वतां कर्म प्रच्यवेताध्वरेषु यत्‌ । स्मरणादेवतद्विष्णोः सम्पूर्णं स्यादिति श्रुतिः ।। ॐ विषणुर्विष्णुहरिर्हरिः ।। पिण्डवेदी को थोड़ा तोड़ दे । भगवान सूर्य को नमस्कार कर ले । ।। इति पं0 दिगम्बर झा सुसम्पादितं वाजसनेयिनामाद्यममासिक च श्राद्ध विधिः ।। चतुर्दशमासिक :- प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, पंचम, ऊनषाणू, षष्ठ, सप्तम, अष्टम, नवम, दशम, एकादश, ऊनवार्षिक और द्वादश मासिक । यदि सप्तदश श्राद्ध हो तो वार्षिक, ऊनवार्षिक और त्रयोदश मासिक । “सुगम-श्राद्ध-विधि” वाजसनेयी सपिण्डन श्राद्ध पवित्रित्रिकुशादि धारण कर पूर्वाभिमुख आसनान्न, उपकरणादि व शरीर पर जल छिड़के - ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थाङ्गतोऽपिवा यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यंतरः शुचिः । पुण्डरीकाक्षः पुनातु ।। ॐ पुण्डरीकाक्षः पुनातु ।। संकल्प :- पूर्वाभिमुख त्रिकुशा, तिल, जल लेकर संकल्प करे - >>. ऊँ गोत्रस्य पितुः ........ प्रेतस्य ( गोत्रायाः मातुः ....... ्रेतायाः) प्रेतत्व विमुक्ति हेतु षोडश/सप्तदश श्राद्ध अंतर्गत सपिण्डीकरण श्राद्धं अहं करिष्ये ।। तीन बार गायत्री जप करे । करबद्ध होकर तीन बार देवताभ्यः मंत्र पाठ करे - ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च । नमः स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमो नमः ॥ विश्वेदेवासन :- दाहिना जांघ गिराकर त्रिकुंश, यव, जल से विश्वेदेवा आसन का दान करे - गोत्रायाः मातुः ....... ्रेतायाः) सपिण्डीकरणनिमित्तक श्राद्धे गोत्राणां पितामह-प्रपितामह-वृद्धप्रपितामहानाम्‌ शर्मणां सम्बन्धिनो विश्वेदेवा इदमासनं वो नमः ।। “सुगम-श्राद्ध-विधि” 74 आवाहन :- करबद्ध विश्वेदेवों का आवाहन करे - ॐ विश्वान्‌ देवानहं आवाहयिष्ये, विश्वेदेवा स आगत शृणुताम्‌ इम _ हवं एनं बर्हिनिषीदत ।। ॐ यवोऽसि यवयास्मद्द्वेषो यवयारातीः ।। विश्वदेवा के भोजनपात्र पर जौ छिड़के । फिर ये मंत्र पढ़े - ॐ विश्वेदेवाः शृणुतेम . हवं मे येऽअन्तरिक्षे य उपपद्यविष्ट येऽअग्निजिहवा उतवा यजत्रा आसद्याऽस्मिन्‌ बर्हिषि मादयध्वम्‌ ।। ॐ आगच्छन्तु महाभागा विश्वेदेवा महाबलाः । ये यत्र योजिताः श्राद्धे सावधाना भवन्तु ते ।। अर्ध्यस्थापन :- अर्ध्य पूड़ा में पवित्री (कुश) देकर इन मंत्रों से जल व जौ दें - ॐ शत्रो देवीरभिष्टय ऽआपो भवन्तु पीतये । शंय्योरभिस्रवन्तु नः ।। - जल। ॐ यवोऽसि यवयास्मद्द्वेषो यवयारातीः ।। - जौ । फूल एवं चन्दन भी दे दें (बिना मंत्र के) । फिर अर्ध्यपात्र को बांये हाथ में ले पूड़ा का पैंता (कुश) निकाल कर विश्वेदेवा के भोजन पात्र पर पूर्वाग्र रखकर जल से सिक्त कर दे । अर्ध्याभिमन्त्रण :- उत्तान दाहिने हाथ से अर्ध्यपूड़ा को ढ़ंक कर यह मंत्र पढ़े - “सुगम-श्राद्ध-विधि” ॐ या दिव्या आपः पयसा सम्बभूबुर्य्या आन्तरिक्षा उत पार्थिवीर्याः । हिरण्यवर्णा यज्ञियास्ता न आपः शिवाः श ` स्योनाः सुहवा भवन्तु ।। अर्घ्योत्सर्ग :- त्रिकुशा, जौ, जल लेकर अर्ध्योत्सर्ग करे - गोत्रस्य पितुः ........ प्रेतस्य सपिण्डीकरणनिमित्तक श्राद्धे पितामह-प्रपितामह-वृद्धप्रपितामहानाम्‌ शर्मणां सम्बन्धिनो विश्वेदेवा इदमर्घ्यं वो नमः।। जौ, जल पूड़ा पर छिड़क कर भोजन पात्रस्थ कुश पर पूड़ा का जल गिरा दे । पैंता (कुश) को पुनः पूड़ा में रखकर पूड़ा को आसन के दक्षिण भाग में इस मंत्र से उत्तान रखे और दक्षिणापर्यंत हिलावे नहीं - ॐ विश्वेभ्यः देवेभ्यः स्थानमसि ।। गन्धादि :- त्रिकुशा, जौ, जल लेकर गन्धादि का उत्सर्ग करे - गोत्रस्य पितुः ........ प्रेतस्य सपिण्डीकरणनिमित्तक श्राद्धे पितामह-प्रपितामह-वृद्धप्रपितामहानाम्‌ शर्मणां सम्बन्धिनो विश्वेदेवा एतानि गन्ध पुष्पधूपदीपताम्बूल यज्ञोपवीतवासांसि वो नमः ॥। आसन सहित विश्वेदेवा के भोजन पात्र का जल से प्रदक्षिणक्रमानुसार मण्डल करे । दक्षि0 अपसव्य होकर अपने बांए “सुगम-श्राद्ध-विधि” भाग में भूस्वामि के अन्नादि का मोड़ा, तिल, जल लेकर उत्सर्ग करे - ॐ इदमन्नम्‌ एतद्‌ भूस्वामि पितृभ्यो नमः ।। पूर्वा0 सव्य हो त्रिकुशहस्त विश्वेदेवा के भोजनपात्र में अन्नादि, घी, मधु, जौ दे जलपात्र वा पूड़ा में जल व घी दे । मधुप्रक्षेप (व्यवहारात्‌ अन्नस्पर्श) :- त्रिकुश लेकर भोजनपात्र के अन्न में उत्तान दाहिना हाथ लगावे - ॐ मधुव्वाता ऋतायते मधुक्षरन्ति सिंधवः माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः मधुनक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिवं . रजः । मधुद्यौरस्तु नः पिता मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमा2 अस्तु सूर्यः। माध्वीर्गावो भवन्तु नः।। ॐ मधु मधु मधु।। दाहिने हाथ के नीचे उन्मुख बायें हाथ से विश्वेदेवान्न पात्र का स्पर्श करे - ॐ पृथिवी ते पात्रं द्यौरपिधानं ब्राह्मणस्य मुखेऽअमृतेऽअमृतं जुहोमि स्वाहा । ॐ इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम्‌ । समूढमस्य पा . सुरे । ॐ कृष्ण हव्यमिदं रक्षमदीयम्‌।। बांये हाथ को पूर्ववत रखे हुए दाहिने हाथ के अंगूठा से विश्वेदेवान्न, पूडा का जल घी और फिर अन्न छूए - ॐ इदमन्नम्‌ । (अन्न) । ॐ इमा आपः । (जल)। ॐ इदमाज्यम्‌ । (घी)। ॐ इदं हविः । (अन्न) बाएं हाथ को भोजन में लगाकर रखते हुए दाहिने हाथ में जौ लेकर इस मंत्र से विश्वेदेवान्न पर छिड़के - यवविकिरण :- ॐ यवोऽसि यवयास्मद्द्वेषो यवयारातीः ।। “सुगम-श्राद्ध-विधि” 77 भोजन :- त्रिकुश, जौ, जल लेकर मंत्र पढ़ते हुए विश्वेदेवान्न का उत्सर्ग करे - गोत्रस्य पितुः ...... प्रेतस्य सपिण्डीकरणनिमित्तक द्धे गोत्राणांपितामह- प्रपितामह-वृद्धप्रपितामहानाम्‌ शर्मणां सम्बन्धिनो विश्वेदेवा इदमन्नं सोपकरणं वो नमः ।। (इसके बाद पितृश्राद्ध वेदी के पास बैठे) आसन :- हाथ-पैर धोकर प्रेत श्राद्ध-स्थान में दक्षि अप0, पातितवानजानु होकर मोड़ा, तिल, जल ले प्रेतासन का उत्सर्ग करे - गोत्र पितः ........ प्रेत ( PN प्रेते ) इदं आसनं ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। प्रेतासन दानान्तर तीन मोड़ा, तिल, जल लेकर पितामह, प्रपितामह एवं वृद्ध प्रपितामहों के आसनों का भी उत्सर्ग करे- गोत्राः पितामह-प्रपितामह-वृद्धप्रपितामहाः ...... शर्माणः इमानि आसनानि वः स्वधा ।। (मातृश्राद्ध जीवितपितृ- गोत्राः पितामही-प्रपितामही-वृद्धप्रपितामह्मः ....... देव्यः) तिल, जल पश्चिम से पूर्व आसनों पर क्रमिक रूप से छीटे । आवाहन :- पितरों के निमित पढे - “सुगम-श्राद्ध-विधि” ॐ पितृन्‌ अहम्‌ आवाहयिष्ये, उशन्तस्त्वा निधीमह्युशन्तः समिधीमहि । उशन्नुशत आवह पितृन्‌ हविषे अत्तवे ।। तिलविकिरण :- ॐ अपहता असुरारक्षा . सि वेदिषदः।। पितामहादि तीनों के भोजनपात्र पर तिल छिड़के। ॐ आयन्तु नः पितरः सोम्यासो ऽअग्निष्वात्ताः पथिभिर्देवयानैः । अस्मिन्‌ यज्ञे स्वधया मदन्तो ऽधिब्रुवन्तु तेऽवन्त्वस्मान्‌ ।। अर्ध्यस्थापन :- चारों अर्ध्यपुटकों में पवित्री देकर इन दोनों मंत्रों से जल व तिल दें :- ॐ शन्नो देवीरभिष्टय ऽआपो भवन्तु पीतये । शंय्योरभिस्रवन्तु नः ।। (जल) ॐ तिलोऽसि सोमदेवत्यो गोसवो देवनिर्मितः । प्रलमद्विः पृक्तः स्वधया पितृन्‌ लोकान्‌ प्रीणाहि नः स्वाहा ।। (तिल)। फूल, चन्दन भी दे दें। अर्ध्याभिमंत्रण :- प्रेतार्घपूड़ा को बाएं हाथ में लेकर उससे पैंता/कुश निकाल कर प्रेत भोजनपात्र पर दक्षिणाग्र रख जल से सिक्त करें । पुनः पूड़ा को दाहिने हाथ से ढंककर यह मंत्र पढ़े :- ॐ या दिव्या आपः पयसा सम्बभूबुर्यां आन्तरिक्षा उत पार्थिवीर्याः । हिरण्यवर्णा यज्ञियास्ता न आपः शिवाः श ` स्योनाः सुहवा भवन्तु ।। “सुगम-श्राद्ध-विधि” 79 अर्घ्य :- मोडा, तिल, जल ले प्रेतार्घ का निम्न मंत्र से उत्सर्ग करे - गोत्र पितः ........... प्रेत इदं अर्ध्यं ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। उत्सर्गोपरान्त पूड़ा का चतुर्थ भाग जल भोजनपात्रस्थ कुश पर गिराकर कुश को पुनः अर्ध्यपूड़ा में रख कर अर्ध्यपात्र को यथास्थान रख दे । तदूत्तर त्रिकमोड़ा लेकर पितामहादिकों के अर्ध्यपात्रों से पैंता/कुश निकाल कर भोजन पात्र पर दक्षिणाग्र रखे; जल से सिक्त कर अर्ध्यपुटकों को दोनों हाथों से ढंक कर पुनः ॐ या दिव्या पढ़े । तिल, जल से अध्या का उत्सर्ग करे - ॐ अद्य गोत्राः पितामह-प्रपितामह-वृद्धप्रपितामहाः ..... शर्माणःइमानि अर्ध्यानि वः स्वधा।। एक (पश्चिम वाला) अर्ध्यपात्र दाहिने हाथ में लेकर सामने के भोजनपात्रस्थ कुश पर पितृतीर्थं से चतुर्थांश जल गिराकर कुश को पुनः पूड़ा में रख पूड़ा यथास्थान रखे; पुनः बीच वाले दूसरे व तीसरे पूड़े से भी वैसे ही चतुर्थांश अर्घ्य देकर कुश को पूड़ा में रखकर पूर्ववत यथास्थान रखे । पूर्वा) सव्य हो आचमन कर “ॐ विष्णुर्विषणुरिर्हरिः” पढ़ कर हरिस्मरण करे । अर्घ्यसंयोजन :- दक्षि0 अपसव्य होकर अग्रिम मंत्र से प्रेतार्घपात्र का जल अलग से पूर्वाग्र रखे हुए तीन खाली पूड़ों में से दो पूड़ों में समंत्र व एक में बिना मंत्र के एक-एक तिहाई जल दे दे - “सुगम-श्राद्ध-विधि” 80 ॐ ये समानाः समनसः पितरो यमराज्ये । तेषां लोकः स्वधा नमो यज्ञो देवेषु कल्पताम्‌ । ॐ ये समानाः समनसो जीवा जीवेषु मामकाः। तेषा ` श्रीर्मयि कल्पतामस्मिल्लोके शत , समाः।। तदूत्तर पितामह सम्बन्धी पूड़े का समस्त जल प्रेतपूड़ा में लेकर ॐ ये समानाः ............ समाः ॥। मंत्र पढ़कर पितामह के पूड़ा में सभी जल गिरा दे; पुनः पूर्ववत्‌ प्रपितामह संबंधी पूड़ा का जल अपने बांए प्रेतपूडा में लेकर प्रपितामह के अर्ध्यपूड़ा समंत्र में दे दे । इसी विधि से समंत्र वृद्ध-प्रपितामह के अर्घ्यपूडा में भी जल देवे । न्युब्जीकरण :- कुश सहित प्रेतार्घपूड़ा को इस मंत्र से प्रेतासन से पश्चिम अधोमुख कर दे - ॐ पित्रे (मात्रे) स्थानमसि ।। दक्षिणा देने तक उस पूड़ा को नहीं हिलावे । वृद्धप्रपितामह के अर्ध्यपूड़ा का जल, कुश प्रपितामह के अर्ध्यंपूड़ा में देकर यथास्थान रखे, फिर प्रपितामह के अर्ध्यपूड़ा का जल, कुश पितामह के अर्ध्यपूड़ा में गिराकर यथास्थान रखे, पुनः पितामहार्घपात्र को उठा कर प्रपितामहार्घपात्र में रखे फिर दोनों अर्ध्यपात्रों को उठाकर वृद्ध-प्रपितामहार्घपात्र में रखकर तीनों पूडा को पितामहादिकों के आसन से पश्चिम भाग में अधोमुखी कर दे - ॐ पितृभ्यः स्थानमसि ।। दक्षिणा देने तक उन पूड़ों को न हिलावे । गन्धादि :- प्रेतमोड़ा, तिल, जल लेकर प्रेत के गन्धादि का उत्सर्ग करे - “सुगम-श्राद्ध-विधि” 81 गोत्र पितः ...... प्रेत एतानि गन्धपुष्पधूपदीपताम्बूल यज्ञोपवीताऽऽच्छादनानि/ विद्यमानोपकरणानि ते मया दीयन्ते तवोपतिष्ठन्ताम्‌ ।। त्रिक मोड़ा, तिल, जल लेकर पितामहादि तीनों के गन्धादि का उत्सर्ग करे - ॐ गोत्राः पितामह-प्रपितामह-वृद्धप्रपितामहाः ................ शर्माणः एतानि गन्धपुष्पधूपदीपताम्बूलयज्ञोपवीतऽऽच्छादनानि/विद्यमानोपकरणानि वः स्वधा ।। प्रेत मोड़ा लेकर पिता के भोजनपात्र व आसन के चारों ओर जल से मण्डल (अप्रदक्षिण) कर दे । पुनः त्रिकमोड़ा लेकर क्रमशः पितामहादिकों के भोजनपात्र व आसन को भी जल से मण्डलित कर दें । अग्नौकरण :- पूर्वा0 सव्य होकर एक पूड़ा में जल व जौ रखे, दूसरे पूड़े में सिद्धान्न, घी रखे। पातित-दक्षिणजानु होकर अनामिका और अंगुठा से पूड़ा का अन्रादि लेकर जल वाले पूड़े में दो बार आहुति प्रदान करे - ॐ अग्नये कव्यवाहनाय स्वाहा ।। पहली आहुति ।। ॐ सोमाय पितृमते स्वाहा ।। दूसरी आहुति दे ।। अप0 दक्षि0 पितामहादि के भोजन पात्र पर थोड़ा-थोड़ा हुतशेषान्न दे दें। पुरुषाहार-परिमित प्रेतान्न, दूध, दही घी, मधु व्यञ्जनादि परोस कर रख दे। एक पात्र में घी एवं तिल युत जल भोजन से उत्तरभाग में रख दे। अग्नौकरण हुतशेषान्न “सुगम-श्राद्ध-विधि” 82 प्रेत-पाक एवं पितामहादि पाक में मिलाकर पिण्ड निर्माण कर पिण्डाधारपात्र में रख ले। पुनः पितमहादि तीनों के लिए भी भोजन व जल पात्रों में इसी तरह मिलाकर तीनों के वास्ते पिण्ड निर्माण कर पात्रों में रख ले । मधुप्रक्षेप (व्यवहारात्‌ अन्नस्पर्श) : प्रेतत्रिकुश लेकर भोजनपात्र के अन्न में अधोमुखी दाहिना हाथ लगावे- ॐ मधुव्वाता ऋतायते मधुक्षरन्ति सिंधवः माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः मधुनक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिव _ रजः। मधुद्यौरस्तु नः पिता मधुमान्नो वनस्पतिर्मथुमाँ2 अस्तु सूर्यः। माध्वीर्गावो भवन्तु नः।। ॐ मधुमधुमधु।। पात्रालम्भन :- दाहिने हाथ के नीचे अधोमुख बायें हाथ से भोजनपात्र का स्पर्श करे - ॐ पृथिवी ते पात्रं द्यौरपिधानं ब्राह्मणस्य मुखे ऽअमृते ऽअमृतं जुहोमि स्वाहा ।। ॐ इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम्‌ । समूढ़मस्य पा, सुरे । ॐ कृष्ण कव्यमिदं रक्षमदीयम्‌।। अवगाहन :- बांये हाथ को भोजनपात्र में लगाए रखते हुए ही दाहिने हाथ के अंगूठा से भोजनपात्र का अन्न पूड़ा का जल, घी और फिर अन्न छूए - ॐ इदमन्नम्‌ । (अन्न) । ॐ इमा आपः । (जल)। ॐ इदमाज्यम्‌ । (घी)। ॐ इदं हविः । (अन्न) अगले मंत्र से अन्न पर तिल छिड़के । तिलविकिरण :- ॐ अपहता असुरा रक्षा . सि वेदिषदः । “सुगम-श्राद्ध-विधि” 83 भोजन :- दाहिने हाथ मे मोडा, तिल, जल लेकर प्रेतान्न का उत्सर्ग करे - गोत्र पितः ....... प्रेत इदमन्नं सोपकरणं ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। पुनः पूर्ववत्‌ पितामहादिकों के भोजनों का त्रिक-त्रिकुशा लेकर अधोमुखी दाहिणे हाथ से स्पर्श कर “ ॐ मधुवाता मधु ” मंत्र का पाठ करके दाहिने हाथ के नीचे बायां हाथ भी भोजनपात्र में लगा दे व “ ॐ पृथिवी मदीयम्‌ ” का पाठ करे । अवगाहन :- दाहिना हाथ हटा ले व अंगूठे से अन्न, जल, घी व अन्न का मंत्र पढ़ते हुए स्पर्श करे - ॐ इदमन्नम्‌ । (अत्र) । ॐ इमा आपः । (जल)। ॐ इदमाज्यम्‌ । (घी)। ॐ इदं हविः । (अन्न) भोजन :- दाहिने हाथ मे त्रिक मोड़ा, तिल, जल लेकर पितामहादिकों के भोजन का उत्सर्ग करे - गोत्राः पितामह-प्रपितामह-वृद्धप्रपितामहाः ...... शर्माणः इदमन्नं सोपकरणं वः स्वधा।। बाएं हाथ को हटाकर पूर्वा0 सव्य होकर तीन बार गायत्री जप करे । दक्षि0 अप0 'ॐ मधुमधुमधु' पढकर यह मंत्र पढे - ॐ अन्नहीनं क्रियाहीनं विधिहीनं च यद्भवेत्‌ तत्‌ सर्वम्‌ अष्ठिद्रमस्तु ।। पूर्वा0 सव्य गायत्री जप कर आसन के नीचे त्रिकुशा संकल्प वाला रखे । “सुगम-श्राद्ध-विधि” _ 84 दक्षि0 अप0 फिर 'ॐ मधुमधुमधु” पाठ करे । फिर ॐ कृणुष्वपाज: ......................... शत्रून्‌ ।। पूर्ण मंत्र पाठ कर भोजनपात्र पर तिल छिड़के (आद्य श्राद्ध प्रकरण से प0. 66.) । फिर ॐ उदीरतामवर रुचिः । पूर्ण मंत्र पढ़े (आद्य श्राद्ध प्रकरण से पृ0. 66.)। विकिरदान :- वेदी के पश्चिम त्रिकुंश रखकर जल से सिक्त कर दे । एक पूड़ा में अन्नादि लेकर जल से सिक्त करे फिर मोड़ा के जड़ से सहारा देकर त्रिकुश पर बांए हाथ के पितृतीर्थं से दे - ॐ अनग्निदग्धाश्च ये जीवा ये प्रदग्धाः कुले मम। भूमौ दत्तेन तृप्यन्तु तृप्ता यान्तु पराङ्गतिम्‌ ।। त्रिकुश धारण कर पूर्वा) सव्य हो आचमन कर “ॐ विष्णु्विष्णुरिर्हरिः” पढ़कर त्रिगायत्री जपे । फिर ऊँ मधु मधु मधु ।। पाठ करे । उल्लेखन :- दक्षि0 अप0 होकर बालुकामयी वेदि को सिक्त कर पेंता लगे प्रेतमोड़ा से प्रेत-पिण्डस्थान में प्रादेशमात्र रेखा खींचे - ॐ अपहता असुरा रक्षा . सि वेदिषदः ।। ` पुनः पितामहादिकों के पिण्डस्थान में भी त्रिकमोड़ा के जड़ में पेता लगाकर ॐ अपहता मंत्र से प्रादेशमात्र रेखा खींचे। अंगारश्रमण :- रेखाओं पर थोड़ा आग रख कर कुश के जड़ से चलाते हुए दक्षिण में गिरा दे - “सुगम-श्राद्ध-विधि” ॐ ये रूपाणि प्रतिमुञ्चमाना असुराः सन्तः स्वधया चरन्ति । परापुरो निपुरो ये भरन्त्यग्निष्टाल्लोकातू प्रणुदात्यस्मात्‌ ॥ प्रादेशप्रमाण रेखाओं पर नौ छिन्नमूल कुश रखकर जल से सिक्त कर दे। पूर्वा0सव्य होकर तीन बार ॐ देवताभ्यः मंत्र पढे- ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च । नमः स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमो नमः ॥। अत्रावन :- अप0 दक्षि0 हो बाएं हाथ में तिल-जल-पुष्प-चंदन युक्त एक पूड़ा लेकर दाहिने हाथ में प्रेत-मोड़ा, तिल जल लेकर इस मंत्र से उत्सर्ग करे - गोत्र पितः ......... प्रेत अत्रावने निक्ष्' ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। उत्सर्ग कर पूड़ा का जलादि दाहिने हाथ के पितृतीर्थ से प्रेतवेदी के कुशों पर दे । पुनः त्रिकमोड़ा, तिल, जल लेकर ूर्वस्थापित पितामहादिक अवनेजन के तीन पूड़ाओं का इस मंत्र से उत्सर्ग करे - गोत्राः पितामह-प्रपितामह-वृद्धप्रपितामहाः ..... शर्माणः अत्रावने निग्ध्वं वः स्वधा ।। उत्सर्गोपरांत क्रमशः अवनेजन पात्रों का जल बारी-बारी दक्षिणाग्र तीन जगह वेदी के कुशाओं पर पितृतीर्थ से दे दे । पिण्ड :- बिल्वप्रमाण प्रेत-पिण्ड बाएं हाथ में लेकर प्रेतमोड़ा, तिल, जल लेकर पिण्डोत्सर्ग करे- 1. एकवचन - निक्ष्व द्विवचन - निजाथाम बहुवचन - निर्ध्वं “सुगम-श्राद्ध-विधि” 86 PRT गोत्र पितः .......... प्रेत एष पिण्डः ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। पिण्ड को दाएं हाथ में लेकर पितृतीर्थ से प्रेत-पिण्डस्थान के कुशों पर रखे । पुनः पितामह, प्रपितामह व वृद्ध-प्रपितामहों के पिण्डों का भी बारी-बारी से तत्तत्‌ मोड़ा, तिल-जल लेकर उत्सर्ग करे - ॐ अद्य ...... गोत्र पितामह(प्रपितामह/वृद्धप्रपितामह) ...... शर्मन्‌ एष पिण्डः ते स्वधा ।। उत्सर्गोपरांत पिण्डों को पितामहादिकों के पिण्डस्थान पर दाहिने-हाथ के पितृतीर्थं से स्थापित करे । ॐ लेपभागभुजस्तृप्यन्तु ।। इस मंत्र से पितामहादिकों के पिण्डतलस्थ कुशों में हाथ पोछे । पूर्वा सव्य हो आचमन कर “ॐ विष्णुर्विष्णुहरिरहरिः” पढ़कर हरिस्मरण करे । अप0 दक्षि0 करबद्ध उत्तर मुंह कर इस मंत्र से श्वास ले, सांस को रोक कर सूर्यस्वरूप पितर का ध्यान करे । ॐ अत्र पितर्मादयस्व यथाभाग मा वृषायस्व ।। सांस खींचकर रोके । ॐ अमीमदत पिता यथाभाग मा वृषायिष्ट ।। पश्चिमाभिमुख श्‍वास छोड़े । पुनः करबद्ध उत्तर मुंह कर इस मंत्र से श्वास ले, सांस को रोक कर पितामहादिकों का ध्यान करे । ॐ अत्र पितरोमादयध्वं यथाभाग मा वृषादयध्वम्‌ ।। सांस खींचकर रोके । ॐ अमीमदन्त पितरो यथाभाग मा वृषायिषत ।। पश्चिमाभिमुख श्‍वास छोड़े । “सुगम-श्राद्ध-विधि” 87 प्रत्यवन :- प्रेतप्रत्यवन पूड़ा बाएं हाथ में लेकर प्रेतमोड़ा, तिल, जल ले प्रत्यवन उत्सर्ग करे - ॐ अद्य ...... गोत्र पितः ....... प्रेत अत्र प्रत्यवने निक्ष्व ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌।। उत्सर्ग कर पूड़ा का जलादि (प्रत्यवन) दाहिने हाथ के पितृतीर्थ से प्रेतपिण्ड पर दे । ॐ अद्य ........ गोत्राः पितामह-प्रपितामह-वृद्धप्रपितामहाः .......... शर्माणः अत्र प्रत्यवने निग्ध्वं वः स्वधा ॥। पितामहादिकों के प्रत्यवन पूड़ा का जल पितृतीर्थं से उनके-उनके पिण्डों पर दे । दाहिने कोहनी से नीवीं (डांर) ससार कर, पूर्वा0सव्य हो आचमन करे, अप0द0 हो प्रेतमोड़ा धारण कर प्रेतपिण्ड पर सूता दे - ॐ एतत्ते पितर्वासः/मातर्वासः ।। त्रिकमोड़ा लेकर पितामहादिकों के पिण्डों पर तीन सूता दे । ॐ नमो वः पितरो रसाय नमो वः पितरो शोषाय नमो वः पितरो जीवाय नमो वः पितरःस्वधायै नमो वः पितरो घोराय नमो वः पितरो मन्यवे नमो वः पितरः पितरो नमो वो गृहान्नः पितरो दत्त सतो वः पितरो द्वेष्म ।। ॐ एतद्‌ वः पितरो वासः।। पितामहादिक तीनों के पिण्डों पर तीन सूता चढ़ा दे । वस्त्रोत्सर्ग :- प्रेत-मोड़ा, तिल, जल ले प्रेत-सून्र का उत्सर्ग करे - Co गोत्र पितः .......... प्रेत एतद्वासः ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। “सुगम-श्राद्ध-विधि” 88 त्रिकमोड़ा, तिल, जल लेकर पितामहादिकों के सूत्र का उत्सर्ग करे - ॐ अद्य ...... गोत्राः पितामह-प्रपितामह-वृद्धप्रपितामहाः ..... शर्माणः इमानि वासांसि वः स्वधा।। पिण्डसम्मेलन :- हाथ धोकर पितरों का ध्यान करते हुए बिना मंत्र के पहले प्रेतपिण्ड पर पान, सुपारी, पुष्प चन्दनादि चढ़ाकर पिण्ड के चारों ओर पिण्ड शेषान्न बिखेर दे, फिर पितामहादिकों के पिण्डों पर पान, सुपारी, पुष्प, चन्दनादि चढ़ाकर पिण्ड के चारों ओर पिण्ड शेषान्न बिखेरे । पुनः त्रिकुशा के जड़ से पिण्डस्थ पानादिकों को हटा कर स्वर्ण/रजत शलाका को दोनों हाथ (बांए हाथ में जड़भाग) से पकड़कर 'ॐ ये समानाः ................ समाः? मंत्र पढ़ते हुए प्रेत-पिण्ड का तृतीय भाग काटे, पुनः मंत्र पढ़ कर दुबारा तृतीय भाग काटे - ॐ ये समानाः समनसः पितरो यमराज्ये । तेषां लोकः स्वधा नमो यज्ञो देवेषु कल्पताम्‌ ।। ॐ ये समानाःसमनसो जीवा जीवेषु मामकाः। तेषा ` श्रीर्मयि कल्पतामस्मिंल्लोके शत ` समाः।। प्रेत-पिण्ड को दो बार तृतीयांश काटने पर तीन भाग बनेगा । एक-एक भाग को 'ॐ ये समानाः....... समाः? मंत्र पढ़ते हुए क्रमशः पितामहादिकों के तीनों पिण्ड में मिला दे । पुनः सब पिण्डों को एकत्र मिला कर गोल करे, फिर पिता पितामहादिकों का ध्यान करते हुए पिण्ड पर पितृतीर्थ से चार अंजलि जल दे । पिण्डपूजन :- चन्दन-फूल-माला-पान-मखान-्रव्यादि चढ़ाकर पिण्ड पूजा करे । पिण्डशेषान्न पिण्ड के समीप बिखेर दे। पूर्वा0 सव्य त्रिकुश-हस्त हो कर विश्वेदेवान्न पर, फिर दक्षि0 अप0 मोटकहस्त प्रेत, पितामहादि चारों के भोजनों पर मंत्र “सुगम-श्राद्ध-विधि” 89 पढ़ते हुए क्रमशः जल, फूल व अक्षत चढ़ावे - ॐ शिवा आपः सन्तु ।। जल। ॐ सौमनस्यमस्तु ।। फूल। ॐ अक्षतंचारिष्टमस्तु ।। अक्षत | अक्षय्योदक :- तदूत्तर चार पूड़ा में जल, चन्दन, फूल, तिल, घी, मधु देकर अक्षय्योदक बना ले । प्रेतमोड़ा तिल, जल लेकर प्रेत के अक्षय्योदक का उत्सर्ग कर पिण्ड पर पूड़ा का जल दे दे - गोत्रस्य पितुः .............. प्रेतस्य दत्तैतदन्नपानादिकमुपतिष्ठताम्‌ ।। पुनः त्रिकमोड़ा, तिल, जल लेकर तीनों अक्षय्योदकों का उत्सर्ग कर पितामहादिकों के वास्ते पिण्ड पर दे - गोत्राणां पितामह-प्रपितामह-वृद्धप्रपितामहानाम्‌ दत्तैतदन्न पानादिकानि अक्षय्यानि सन्तु ।। जलधारा :- पूर्वा0 सव्य हो दक्षिण की ओर देखते हुए अंजलि से पिण्ड पर पूर्वाग्र जलधारा दे - ॐ अघोराः पितरः सन्तु ।। (अंजलिबद्ध) आशीषप्रार्थना :- पूर्वा0 प्रणाम कर दक्षिणदिशा देखते हुए पढ़े - ॐ गोत्रं नो वर्धतां दातारो नोऽभिवर्धन्तां वेदाः सन्ततिरेव च । श्रद्धा च नो मा व्यग्मद्‌ बहुदेयञ्च च नोऽअस्तु । अन्नं च नो बहुभवेत्‌ अतिर्थींश्च लभेमहि । याचितारश्च नः सन्तु मा “सुगम-श्राद्ध-विधि” च याचिष्म कञ्चन । एताः सत्याशिषः सन्तु ।। अप0 दक्षि0 त्रिकुशा से पिण्डस्थ पान-पुष्पादि हटाकर त्रिकुशा को पिण्ड पर दक्षिणाग्र करके रख दे । वारिधारा :- एक पूड़ा में जल तिल, पुष्प, चंदन या दूध लेकर इस मंत्र से पिण्डथ कुश पर दक्षिणाग्र पर धारा दे - ॐ ऊर्ज्ज॑ वहन्तीरमृतं घृतं पयः कीलालं परिश्रुतम्‌ । स्वधास्थ तर्पयत्‌ मे पितृन्‌ ।। विनम्रभाव से पिण्ड को सूंघकर दोनों हाथ से थोड़ा उठाकर फिर रख दे । पिण्डतलस्थ कुशों को निकाल कर आग में दे दे । सव्य होकर विश्वेदेवार्घपात्रों का पूर्वाग्र हिला दे । पुनः अप0 दक्षि0 होकर प्रेत एवं पितामहादिकों के अधोमुखी अर्घ्यपात्रों को उत्तान कर दे । विश्वेदेव आद्धदक्षिणा :- पूर्वा0 सव्य0 हो त्रिकुशा, तिल, जल लेकर विश्वेदेवश्राद्ध की दक्षिणा करे - गोत्रस्य पितुः ........ प्रेतस्य ( गोत्रायाः मातुः ....... ्रेतायाः) सपिण्डीकरण निमित्तक श्राद्धे गोत्राणां पितामह-प्रपितामह-वृद्धप्रपितामहानाम्‌ शर्मसम्बन्धिनां विश्वेषां देवानां कृतैतत्‌ द्धप्रतिष्ठार्थम्‌ एतावतू! द्रव्यमूल्यक हिरण्यं अग्निदैवतं यथानाम गोत्राय ब्राह्मणाय दक्षिणां दातुमहमुत्सृज्ये ।। 1. दक्षिणाद्रव्याभाव होने पर :- यद्दीयमानद्रव्यमूल्यकं दक्षिणां दातुमहमुतसृज्ये पढे । “सुगम-श्राद्ध-विधि” 91 प्रेतश्राद्ध दक्षिणा :- अप0 दक्षि0 प्रेतमोडा, तिल, जल ले करे प्रेत श्राद्ध का दक्षिणा करे - गोत्रस्य पितुः ....... प्रेतस्य कृतैतत्‌ सपिण्डीकरण श्राद्धप्रतिष्ठार्थम्‌ एतावत्‌ ्रव्यमूल्यकं रजतं चन्द्र दैवतं गोत्राय शर्मणे ब्राह्मणाय दक्षिणां तुभ्यमहं सम्प्रददे ।। मंत्र का पढ़कर ब्राह्मण को दक्षिणा दे और ब्राह्मण 'ॐ स्वस्ति’ कहकर दक्षिणा ले लें । पितामहादित्रय श्राद्ध दक्षिणा :- पुनः त्रिकमोड़ा, तिल, जल लेकर पितामहादिक श्राद्ध की दक्षिणा करे - गोत्रस्य पितुः ........ प्रेतस्य सपिण्डीकरणनिमित्तक श्राद्धे गोत्राणां पितामह-प्रपितामह-वृद्धप्रपितामहानाम्‌ शर्मणां कृतैतानि श्राद्धानि प्रतिष्ठार्थम्‌ एतावत्‌ ्रव्यमूल्यकं रजतं चन्द्रदैवतं यथानाम गोत्राय ब्राह्मणाय दक्षिणामहं ददे ।। पूर्वा सव्य आचमन कर विश्वेदेवों का विसर्जन जल लेकर कर दे - ॐ विश्वेदेवाः प्रीयन्ताम्‌ ।। प्रणाम कर तीन बार ॐ देवताभ्यः पाठ करे - ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च । नमः स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमो नमः ॥ अप0 होकर दीप का बुझाकर हाथ-पैर धो ले, पूर्वा0 सव्य हो आचमन कर प्रमादात्‌ मंत्र पढ़कर श्राद्ध-सामग्री ब्राह्मण को दे दे - “सुगम-श्राद्ध-विधि” 92 ॐ प्रमादात्कुर्वतां कर्म प्रच्यवेताध्वरेषु यत्‌ । स्मरणादेवतदिष्णोः सम्पूर्ण स्यादिति श्रुतिः ।। ॐ विषणुर्विष्णुरहरिर्हरिः ।। पिण्डवेदी को थोड़ा तोड़ दे । भगवान सूर्य को नमस्कार करे । पिण्डादि का जल-प्रवाह वा यथाविधि विसर्जन करके उत्तरीय खुलवा कर स्नान कर ब्राह्मणों को भोजन कराये । स्नान कर नववस्त्रादि धारण करे और विधि अनुसार आंगन में कलशपूजन करके कुटुम्ब-प्रदत्त वस्त्राउन्नादि का उत्सर्ग करके पगरीबन्धन करे । देव निमित्तक ब्राह्मणों को भोजन करावे और स्वयं भी भोजन करे । ।। इति पं0 दिगम्बर झा सुसम्पादितं वाजसनेयिनां सपिण्डन श्राद्ध विधिः ।। विशेष :- पगरीबन्धन जिसके पिता की मृत्यु हो चुकी है, उसी का किया जाना चाहिए । जिसके पिता जीवित हों उसका पगरीबन्धन नहीं करना चाहिए; मात्र गमछा या चादर ही देना चाहिए । अधीरः ककशः स्तब्धः कुचलः स्वयमागतः । पञ्च विप्रा न पूज्यन्ते बृहस्पतिसमा अपि ।। अवृत्तिभ॑यमंत्यानां मध्यानां मरणाद्वयम्‌ । उत्तमानां तु मर्त्यांनामावमानाद्रयम्‌ ।। सुभाषित “सुगम-श्राद्ध-विधि” 93 छन्दोगी अपात्रक आद्य (एकादशाह) व मासिक (द्वादशाह) श्राद्ध विधि स्नानादिकोपरांत नित्यकर्म (संध्या, तर्पण, पंचदेवता और विष्णु का पूजन) कर श्राद्धकर्ता और पाककर्त्ता पवित्र मंडलकृत श्राद्धस्थला आकर अंगारभ्रमण करे गोरी मिट्टी छिड़के । दिग्रक्षण कर पाककर्म कर ले । पाककर्त्ता से श्राद्धकर्ता पूछे - “ॐ सिद्धम्‌” । पाककर्त्ता की स्वीकारोक्ति के बाद रक्षादीप जलाकर श्राद्ध सामग्री यथाविधि स्थापित कर ले । त्रिराचमन-उर्धवपुण्ड्र करके पवित्रीधारण पूर्वक जल लेकर आत्मशुद्धि करे - ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थाङ्गतोऽपिवा यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यंतरः शुचिः । पुण्डरीकाक्षः पुनातु ।। ॐ पुण्डरीकाक्षः पुनातु ॥। पवित्रीकरणोपरांत त्रिकुशा, तिल, जल लेकर प्रधान-संकल्प करे - ॐ अद्य ....... गोत्रस्य पितुः ........ प्रेतस्य ( ...... गोत्रायाः मातुः ...... प्रेतायाः ) प्रेतत्व विभुक्तिकामः अद्यादि यथाकालं षोडश/ सप्तदश श्राद्धानि अहं करिष्ये ।। यदि अगले ग्यारह महीने के अन्दर मलमास लगे तो सप्तदश पद होगा । संकल्प :- पूर्वाभिमुख त्रिकुशा, तिल, जल लेकर संकल्प करे - “सुगम-श्राद्ध-विधि” 94 गोत्रस्य पितुः ......... प्रेतस्य प्रेतत्व विमुक्ति हेतु षोडश/सप्तदश श्राद्ध अंतर्गत आद्य/ प्रथम/द्वितीय मासिक श्रां अहं करिष्ये ।। तीन बार गायत्री जप करे । करबद्ध होकर तीन बार देवताभ्यः मंत्र पाठ करे - ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च । नमः स्वधायै स्वाहायै नित्यमेव भवन्त्विति ।। आसन :- अपसव्य होकर दक्षिणाभिमुख पातितवामजानु मोड़ा, तिल, जल लेकर पूर्वसिक्त प्रेतासन का उत्सर्ग करे - गोत्र पितः ........ प्रेत ( गोत्रे मातः ...... प्रेते ) इदं आसनं ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। आद्यश्राद्ध में आसनोत्तर आवरणकाम छत्र व तप्तबालुकासिकण्टकित {तरन काम उपानद्दान होता है ; जिसके देवता उत्तानांगिर हैं । तिलविकिरण :- ॐ अपहता असुरा रक्षांसि वेदिषदः।। भोजनपात्र पर तिल छिड़के । अर्ध्यस्थापन :- अर्ध्य पूड़ा में पवित्री (कुश) देकर इन दोनों मंत्रों से जल व तिल दें - एकादशाह को जो श्राद्ध किया जाता है, उसे ही आद्यश्राद्ध कहते हैं । द्वादशाह को 14 (1 वर्ष के मध्य अधिकमास लगने पर 15) मासिक श्राद्ध किया जाता है यह स्मरण रखना चाहिए । “सुगम-श्राद्ध-विधि” ॐ शन्नो देवीरभिष्टये शन्नो भवन्तु पीतये । शंयोरभिस्रवन्तु नः ॥ जल । ॐ तिलोऽसि पितृदेवत्यो गोसवो देवनिर्मितः । प्रत्नमद्विः पृक्तः स्वथया पितृन्‌ लोकान्‌ प्रीणाहि नः स्वधा ।। तिल । फूल व चन्दन भी अर्ध्यपूड़ा में दे दें । अर्ध्यपूड़ा को उठाकर बाएं हाथ में लेकर पूड़ा से कुश निकाल कर भोजनपात्र पर रखकर जल से सिक्त कर दें । अर्ध्याभिमंत्रण :- फिर दाहिने हाथ से बाएं हाथ में स्थित अर्ध्यपूड़ा को ढंककर मंत्र पढे - ॐ या दिव्या आपः पयसा सम्बभूबुर्या आन्तरिक्षा उत पार्थिवीर्याः । हिरण्यवर्णा यज्ञियास्ता न आपः शिवाः शं स्योनाः सुहवा भवन्तु ।। अर्ध्य :- मो.ति.जल लेकर निम्न मंत्र से अर्ध्य का उत्सर्जन करे - गोत्र पितः .......... प्रेत इदं अघ्य॑ ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। पूडा का जल (अर्ध्य) भोजनपात्रस्थित कुश पर दक्षिणाग्र दे दे । न्युब्जीकरण :- कुश को पूर्ववत्‌ पूड़ा में रखकर प्रतान से पश्चिम अधोमुख कर दे और ये मंत्र पढ़े - ॐ पित्रे (मात्रे) स्थानमसि ।। दक्षिणा देने तक उस पूड़ा को नहीं हिलावे । “सुगम-श्राद्ध-विधि” ॐ इह लोकं परित्यज्य गतोऽसि परमां गतिम्‌ ।। गन्धादि उत्सर्ग :- मो.ति.जल लेकर निम्न मंत्र से वस्त्रगन्धादि का उत्सर्ग करे - गोत्र पितः ...... प्रेत एतानि गन्धपुष्पधूपदीपताम्बूलयज्ञोपवीताऽऽच्छादनानि/ विद्यमानोपकरणानि ते मया दीयन्ते तवोपतिष्ठन्ताम्‌ ।। प्रेतासन व भोजनपत्र के चारों ओर जल से वामावर्त मण्डल करके अन्नादि (भात, सब्जी, घी, मधु) परोसे । भूस्वामि अन्नदान :- मो.ति.जल लेकर भूस्वामि के लिए पिण्डवेदी के पूर्व भाग में अन्नादि दे - ॐ इदमन्रम्‌ एतद्‌ भूस्वामि पितृभ्यो नमः । मधुप्रक्षेप (व्यवहारात्‌ अन्नस्पर्श) :- त्रिकुंशा लेकर भोजनपात्र के मधुयुक् प्रेतान्न को अधोमुखी दाहिने हाथ से स्पर्श कर मधुव्वाता मंत्र पढे - ॐ मधुव्वाता ऋतायते मधुक्षरन्ति सिंधवः माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः मधुनक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिवं रजः। मधुद्यौरस्तु नः पिता मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमाँ 2 अस्तु सूर्यः । माध्वीर्गावो भवन्तु नः ।। ॐ मधु मधु मधु ॥ पात्रालम्भन :- दाहिने हाथ के नीचे अधोमुख कर बायां हाथ लगाकर भोजनपात्र स्पर्श करते हुए यह मंत्र पढे - “सुगम-श्राद्ध-विधि” 97 ॐ पृथिवी ते पात्रं द्यौरपिथानं ब्राह्मणस्य मुखे ऽअमृते ऽअमृतं जुहोमि स्वाहा ।। ॐ इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम्‌ समूढमस्य पांसूले । ॐ कृष्ण कव्यमिदं रक्षमदीयम्‌ ।। अवगाहन :- बांये हाथ को भोजनपात्र में लगाए रखते हुए ही दाहिने हाथ के अँगूठा से भोजनपात्र का अन्न, पूड़ा का जल और फिर अन्न छूए - ॐ इदमन्नम्‌ । (अन्न) । ॐ इमा आपः । (जल)। ॐ इदं हविः । (अन्न) ।। अन्नदान :- दाहिने हाथ में मो.ति.जल लेकर प्रेतान्न का उत्सर्ग करे - ॐ अद्य ....... गोत्र पितः ........ प्रेत इदमन्नं सोपकरणं ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। बाएं हाथ को हटाकर पूर्वा0 सव्य हो तीन बार गायत्री जप करे। दक्षि0 अप0 “ॐ मधुमधुमधु' पढकर दोनो हाथ उठाते हुए निम्न मंत्र पढे - ॐ अन्नहीनं क्रियाहीनं विधिहीनं च यद्रवेत्‌ ततू सर्वम्‌ अषिद्रम्‌ अस्तु ।। पूर्वा सव्य गायत्री जप कर आसन के नीचे त्रिकुशा (संकल्प वाला) देकर; दक्षि0 अप0 फिर 'ॐ मधुमधुमधु' पाठ करे । तिल लेकर निम्न मंत्र पढे - ॐ कृणुष्वपाजः प्रसितिं न पृथ्वीं याहि राजे वामवाँ 2 इभेन । तृष्वीमनु प्रसितिं द्रूणानो “सुगम-श्राद्ध-विधि” ऽस्तासि विध्य रक्षसस्तपिष्ठै-। तव भ्रमास आशुया पतन्त्यनुस्पृश धृषता शोशुचानः तपूं ष्यग्ने जुहूवा पतङ्गानसन्दितो विसृज विष्वगुल्काः । प्रतिस्पशोविसृज तूर्णितमो भवा पायुर्विशोऽअस्या ऽअदब्धः । यो नो दूरेऽअघसं सो योऽअन्त्यग्ने माकिष्टे व्यथिरादधर्षीत्‌ । उदग्ने तिष्ठ प्रत्यातनुष्वन्यमित्राँ 2 ओषतात्तिग्महेते । यो नोऽअरातिं समिधानचक्रे नीचा तं धक्ष्यत सन्न शुष्कम्‌ । ऊर्ध्वो भव प्रतिविध्याध्यस्मदाविष्कृणुष्व दैव्यान्यग्ने । अवस्थिरा तनुहि यातु जूना जामिमजामिं प्रमृणीहि शत्रून्‌ ।। प्रेत भोजनपात्र या भूमि पर तिल छिड़क दे । फिर पढ़े - ॐ उदीरतामवर उत्परास उन्मध्यमाः पितरः सौम्यासः। असुंयऽईयुरवृकाऋतज्ञास्ते नोऽवन्तु पितरो हवेषु। अंगिरसो नः पितरो नवग्वा अथर्वाणो भगवः सोम्यासः तेषां वयं सुमतौ यज्ञियानामपि भद्रे सौमनसे स्याम। ये नः पूर्वे पितरः सोम्यासोऽअनूहिरे । सोमपीथं वसिष्ठाः तेभिर्व्यमः संरराणो हवीं ष्युशनुशद्रिः प्रतिकाममत्तु।। ॐ सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्‌ । स भूमिं सर्वतस्पृत्वात्यतिष्ठद्दशांगुलम्‌ ....... र सन्ति देवाः ।। ॐ आशुः शिशानो वृषभो न भीमो घनाघनः क्षोभणश्चर्षणीनाम्‌ । संक्रन्दनोऽनिमिष एकवीरः शतं सेना अजयत्‌ साकमिन्द्रः ।। ॐ नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नमः शङ्कराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च॥ “सुगम-श्राद्ध-विधि” ॐ नमस्तुभ्यं विरूपाक्ष नमस्तेऽनेकचक्षुषे । नमः पिनाक हस्ताय वज्रहस्ताय वै नमः ॐ सप्तव्याधा दशार्णेषु मृगाः कालञ्जरे गिरौ । चक्रवाकाः शरद्वीपे हंसाः सरसि मानसे तेऽपि जाताः कुरुक्षेत्रे ब्राह्मणा वेदपारगाः । प्रस्थिता दूरमध्वानं यूयं तेभ्योऽवसीदथ ॐ नमस्येऽहं पितृन्‌ ये वसन्त्यधि देवताः । देवैरपि हि तृप्यन्तु ये च श्राद्धैः स्वधोत्तरैः ॐ रुची रुची रुचिः ।। विकिरदान :- वेदी के पश्चिम त्रिकुश रखकर जल से सिक्त कर दे । एक पूड़ा में अन्नादि लेकर सिक्त कर मोड़ा के जड़ से सहारा देकर त्रिकुश पर बांए हाथ के पितृतीर्थं से दे - ॐ अग्निदग्धाश्च ये जीवा येऽयदग्धाः कुले मम । भूमौ वत्तेन तृप्यन्तु तृप्ता यान्तु पराङ्गतिम्‌ ॥ त्रिकुश धारण कर पूर्वा0सव्य हो आचमन कर “कै विष्णुर्विष्णुहरिहरि:” पढ़े । दक्षि अप0 होकर त्रि-गायत्री जप कर “ॐ मधुमधुमधु” पढे । बालुकामयी वेदी को सिक्त कर पैंता के जड़ से वेदी पर प्रादेशमात्र रेखा खींचे - ॐ अपहता असुरा रक्षांसि वेदिषदः ।। प्रादेशप्रमाण रेखा पर नौ छिन्नमूल कुश रखकर मोड़ा धारण कर कुशों को सिक्त कर दे । पूर्वा0 सव्य हो देवताभ्यः मंत्र पाठ करे - “सुगम-श्राद्ध-विधि” 100 ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च । नमः स्वधायै स्वाहायै नित्यमेव भवन्त्विति ।। अत्रावन :- अप0 दक्षि0 बाएं हाथ में तिल, जल, पुष्प, चंदन युक्त एक पूड़ा लेकर दाहिने हाथ में मो.ति. जल लेकर इस मंत्र से उत्सर्ग करे - ॐ अद्य ........ गोत्र पितः ........ प्रेत अत्रावने निक्ष्व ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। उत्सर्ग कर पूड़ा का जलादि (अवनेजन) पितृतीर्थं से वेदी के कुशों पर दे दे । (जलस्पर्श ) पिण्डदान :- बिल्वप्रमाण पिण्ड बाएं हाथ में लेकर मो.ति.जल से उत्सर्ग करे - ॐ अद्य ......... गोत्र पितः .......... प्रेत एष पिण्डः ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। दाहिने हाथ के पितृ तीर्थ से वेदी के कुशों पर पिण्ड रखकर जलस्पर्श करे। फिर पिण्ड के नीचे के कुशों में हाथ पोछे । पूर्वा सव्य हो दो बार आचमन कर हरिस्मरण करे । प्रत्यवन :- अप0 दक्षि0 पिण्डनिमार्ण पात्र में जल दे, उस जल को एक पूड़ा में रख ले; तिल, पुष्प, चंदन मिला कर बाएं हाथ में लेकर मोड़ा, तिल, जल ले प्रत्यवन उत्सर्ग करे - ॐ अद्य ...... गोत्र पितः ....... प्रेत अत्र प्रत्यवने निक्ष्व ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌।। उत्सर्ग कर पूड़ा का जलादि (प्रत्यवन) दाहिने हाथ के पितृतीर्थ से वेदी के कुशों पर गिरा दे । जलस्पर्श “सुगम-श्राद्ध-विधि” ॐ अत्र पितर्मादयस्व यथाभाग मा वृषायस्व ।। ईशानाभिमुख होकर इस मंत्र से श्‍वास लेकर सूर्यस्वरूप पितर का ध्यान करे । ॐ अमीमदत पिता यथाभाग मा वृषायिष्ट ।। दक्षिणाभिमुख इस मंत्र से श्‍वास छोड़े । दाहिने कोहनी से डांर (नींवी) को ससारे । पूर्वा0 सव्य हो आचमन कर हरिस्मरण करे । पिण्डपूजन :- अप0 दक्षि0 इस मंत्र से पिण्ड पर सूता दे- ॐ एतत्ते पितर्वासः/मातर्वासः ।। मोड़ा, तिल, जल ले सूत्र का उत्सर्ग करे - गोत्र पितः ........... प्रेत एतद्वासः ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। पुनः हाथ धोकर (जलस्पर्श ) पितर का ध्यान करते हुए (मंत्ररहित) पिण्ड पर पान, सुपारी, पुष्प, चन्दनादि चढ़ाकर पिण्ड के चारों ओर पिण्ड शेषान्न बिखेरे । प्रणाम करते हुए षड्ऋतुओं के लिये मंत्र पढ़े - ॐ वसन्ताय नमस्तुभ्यं ग्रीष्माय च नमो नमः । वर्षाभ्यश्च शरत्संज्ञ ऋतवे च नमः सदा ।। हेमन्ताय नमस्तुभ्यं नमस्ते शिशिराय च । मास संवत्सरेभ्यश्च दिवसेभ्यो नमः सदा ।। ॐ वसन्तादि षड्ऋतुभ्यो नमः।। पिण्ड पर फूल चढ़ाकर अगले मंत्रों से प्रेतान्न पर क्रमशः जल, फूल और अक्षत चढ़ाए :- “सुगम-श्राद्ध-विधि” ॐ शिवा आपः सन्तु ।। प्रेतान्न पर जल दे । सौमनस्यमस्तु ।। रत्न पर फूल चढ़ाए । अक्षतंचारिष्टमस्तु ।। प्रेतान्न पर अक्षत चढ़ाए । आद्य श्राद्ध म॑ एक पूड़ा म॑ जल, तिल, धी, मधु, चंदन, फूल पिण्डवेदी पर रख कर दोनों हाथ भूमिपर रखकर नत होकर यह मंत्र पढ़े - ॐ नमो नमो मेदिनी लोकधत्री उर्व्ि महिशैलगिरिधारिणी नमः । धरिणि काश्यपि जगत्प्रतिष्ठे वसुधे नमोऽस्तु वैष्णवि भूतधात्रि ।। ॐ ॐ नमोऽस्तु ते सर्वरसप्रतिष्ठे निवापनावीचि नमो नमोऽस्तु ते ।। अक्षय्योदक :- मोड़ा, तिल, जल ले मधु, घी, तिल मिश्रित जल भरे पूड़ा का उत्सर्ग करे - ॐ अद्य गोत्रस्य पितुः ........ ( गोत्रायाः मातुः ...... प्रेतायाः ) प्रेतस्य दत्तैतदन्न पानादिकमुपतिष्ठताम्‌ ।। दाहिने हाथ के पितृतीर्थ से अक्षय्योदक (पूड़ा का जल) पिण्ड पर गिरावे । पूर्वा0 सव्य हो दूसरे पूड़े में जल लेकर दक्षिण ओर देखते हुए इस मंत्र से पिण्ड पर अंजली से पूर्वाग्र जलधारा दे - ॐ अघोरः पिता ऽअस्तु/ अघोरा माता ऽअस्तु ।। “सुगम-श्राद्ध-विधि” 103 ॐ गोत्रं नो वर्धताम्‌ ।। पूर्वा0 प्रणाम कर पढे । अप0 दक्षि0 त्रिकुशा से पिण्डस्थ सूत्रादि को हटाकर त्रिकशा को पिण्ड पर दक्षिणाग्र करके रख दे । एक पूड़ा में जल तिल, पुष्प, चंदन या दूध लेकर इस मंत्र से पिण्डथ कुश पर धारा दे - ॐ ऊर्ज्ज॑ वहन्तीरमृतं घृतं पयः कीलालं परिश्रुतम्‌ । स्वधास्थ तर्पयत्‌ मे पितरम्‌ ।। विनम्रभाव से पिण्ड को सूंघकर थोड़ा उठाकर फिर रख दे । पिण्डतलस्थ कुशों को निकाल कर आग में दे । दक्षिणा :- उल्टे हुए अर्ध्यपूडा को पुनः उल्टा कर मोड़ा, तिल, जल लेकर कर्मदक्षिणा करे - अद्य ...... गोत्रस्य पितुः ...... प्रेतस्य (..... गोत्रायाः मातुः ..... प्रेतायाः) कृतैतत्‌ आद्य/प्रथम/दवितीय ...... मासिक श्राद्धप्रतिष्ठार्थम्‌ एतावत्‌ द्रव्यमूल्यकरजतं चन्द्रदैवतं ...... गोत्राय ...... शर्मणे ब्राह्मणाय दक्षिणां तुभ्यमहं सम्प्रददे ।। इस मंत्र का पढ़कर ब्राह्मण को दक्षिणा दे और ब्राह्मण “ ॐ स्वस्ति ” कहकर दक्षिणा ले ले । हाथपैर धोकर पूर्वा0 सव्य आचमन कर प्रसन्नचित्त करबद्ध पितरों से आशीर्वाद मांगे - ॐ दातारो नोऽभिवद्धन्ताम्‌ वेदाः सन्ततिरेव च । श्रद्धा च नो मा व्यग्मद्‌ बहुदेयञ्च च नोऽअस्तु ।। अन्नं च नो बहुभवेत्‌ अतिथींश्व लभेमहि । याचितारश्च नः सन्तु मा च याचिष्म कञ्चन ।। एताः सत्याशिषः सन्तु ।। “सुगम-श्राद्ध-विधि” आद्य श्राद्ध :- पूर्वा0 सव्य होकर यव सहित त्रिकुश पूर्वाग्र रखे । त्रिकुश-यव-जल लेकर मंत्र पढ़ते हुए त्रिकुशा पर गिरावे :- ॐ अग्निमुखा देवातृप्यन्ताम्‌ ।। शेषान्न में जल फूल देकर उसका उत्सर्ग करे :- ॐ एष बलिर्नम पूर्वा सव्य आचमन कर तीन बार देवताभ्यः पढे - ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च । नमः स्वधायै स्वाहायै नित्यमेव भवन्त्विति ।। वामदेवगान : “ कयान इति महावामदेवऋषिर्गायत्रि छन्दः इन्द्रो देवता अग्निष्टोमादौ द्वितीयपृष्ठे शान्ति कर्मणि जपे विनियोगः ” ॐ कयानश्चित्र आभुव दूती सदा वृधः सखा । कया शचिष्ठया वृता । कस्त्वा सत्यो मदानां मंहिष्ठो मत्सदन्धसः दृढ़ा च दारुजे वसु । अभीषुणः सखीनामविता जरतृणां शतं भवास्यूतये ।। ॐ स्वस्ति नऽइन्द्रोवृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः । स्वस्तिनस्ताक्ष्यो ऽअरिटष्नेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु । ॐ स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ।। ॐ प्राजापत्यं वै वामदेव्यं प्रजापतावेव प्रतिष्ठायोत्तिष्ठन्ति । ॐ पशवो वै वामदेव्यं पशुष्वेव प्रतिष्ठायोत्तिष्ठन्ति । ॐ शान्ति्वै वामदेव्यं शान्तावेव प्रतिष्ठायोत्तिष्ठन्ति । ॐ अत एतत्‌ कर्माऽच्छिद्रमस्तु ।। “सुगम-श्राद्ध-विधि” 105 अप0 द0 होकर दीप बुझाकर हाथपैर धोकर, पूर्वा) सव्य आचमन कर प्रमादात्‌ मंत्र पढ़कर श्राद्धसामग्री ब्राह्मण को दे दे - ॐ प्रमादात्कुर्वतां कर्म प्रच्यवेताध्वरेषु यत्‌ । स्मरणादेवतद्विष्णोः सम्पूर्णं स्यादिति श्रुतिः ।। ॐ विष्णुर्विष्णु्हरिर्हरिः ।। पिण्डवेदी को थोड़ा तोड़ दे । भगवान सूर्य को नमस्कार करे । ।। इति पं0 दिगम्बर झा सुसम्पादितं छन्दोगानामाद्यमासिक च श्राद्ध विधिः ।। चतुर्दशमासिक :- प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, पंचम, उनषाणू, षष्ठ, सप्तम, अष्टम, नवम, दशम, एकादश, उनवार्षिक और द्वादश मासिक । यदि सप्तदश श्राद्ध हो तो वार्षिक, उनवार्षिक और पन्द्रहवां त्रयोदश मासिक । “सुगम-श्राद्ध-विधि” सपिण्डन श्राद्ध छन्दोग पवित्रि-त्रिकुशादि धारण पूर्वक पूर्वाभिमुख आसनान्न, उपकरणादि व शरीर पर जल छिड़के - ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थाङ्गतोऽपिवा यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यंतरः शुचिः। पुण्डरीकाक्षः पुनातु ।। ॐ पुण्डरीकाक्षः पुनातु ॥ संकल्प :- पूर्वाभिमुख त्रिकुशा, तिल, जल लेकर संकल्प करे - ॐ अद्य गोत्रस्य पितुः ......... प्रेतस्य ( गोत्रायाः मातुः ...... प्रेतायाः) प्रेतत्व विमुक्ति हेतु षोडश/सप्तदश श्राद्ध अंतर्गत सपिण्डीकरण श्राद्धं अहं करिष्ये ।। तीन बार गायत्री जप करे । करबद्ध होकर तीन बार देवताभ्यः पाठ करे - ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च । नमः स्वधायै स्वाहायै नित्यमेव भवन्त्विति ।। आसन :- दाहिने जांघ को गिराकर त्रिकुश, यव, जल से विश्वेदेवा का आसनोत्सर्ग करे - गोत्रस्य पितुः ........ प्रेतस्य सपिण्डीकरणनिमित्तक श्राद्धे गोत्राणां पितामह-प्रपितामह-वृद्धप्रपितामहानाम्‌ शर्मणां सम्बन्धिनो विश्वेदेवा इदमासनं वो नमः।। आवाहन :-करबद्ध विश्वेदेवा का आवाहन करे - “सुगम-श्राद्ध-विधि” __ 107 ॐ विश्वान्‌ देवान्‌ अहं आवाहयिष्ये, विश्वेदेवे स आगत श्रुणुताम्‌ इमं हवं एनं बर्हिनिषीदत।। ॐ यवोऽसि यवयास्मद्द्वेषो यवयारातिः।। विश्वदेवा के भोजनपात्र पर जौ छिड़के । फिर अगला मंत्र पढ़े - ॐ विश्वेदेवाः शृणृतेमं हवं मे येऽन्तरिक्षे य उपपद्यविष्ट येऽअग्निजिहूवा उतवा यजत्रा आसद्याऽस्मिन्‌ बर्हिषि मादयध्वम्‌ ।। ॐ ओषधयः समवदन्त सोमेन सह राज्ञा यस्मै कृणोति ब्राह्मणस्तं राजन्‌ पारयमसि ।। ॐ आगच्छन्तु महाभागा विश्वेदेवा महाबलाः । ये यत्र योजिताः श्राद्धे सावधाना भवन्तु ते ।। अर्ध्यस्थापन :- अर्ध्य पूड़ा में पवित्री(कुश) देकर इन मंत्रों से जल व जौ दें - ॐ शन्नो देवीरभिष्टये शन्नो भवन्तु पीतये । शंयोरभिस्रवन्तु नः ।। - जल ॐ यवोऽसि यवयास्मद्द्वेषो यवयारातिः ।। -जौ । पुष्प, चन्दन भी दे दें । फिर अर्ध्यपात्र को बांये हाथ में लेकर पूड़ा का पैंता(कुश) निकाल कर विश्वेदेवा के भोजनपात्र पर पूर्वाग्र रखकर जल से सिक्त कर दे । अर्ध्याभिमन्त्रण :- उत्तान दाहिने हाथ से अर्ध्यपूड़ा को ढंक कर यह मंत्र पढ़े - ॐ या दिव्या आपः पयसा सम्बभूबुर्या आन्तरिक्षा उत पार्थिवीर्याः । हिरण्यवर्णा यज्ञियास्ता न आपः शिवाः शं स्योनाः सुहवा भवन्तु ।। “सुगम-श्राद्ध-विधि” 108 अर्ध्य :- त्रिकुशा, जौ, जल लेकर इस मंत्र से अध्योत्सर्ग करे - गोत्रस्य पितुः ....... प्रेतस्य सपिण्डीकरणनिमित्तक श्राद्धे गोत्राणां पितामह-प्रपितामह-वृद्धप्रपितामहानाम्‌ शर्मणां सम्बन्धिनो विश्वेदेवा इृदमघ्य॑ वो नमः ।। जौ, जल पूड़ा पर छिड़क कर भोजन पात्रस्थ कुश पर पूड़ा का जल गिरा दे । पैंता (कुश) को पुनः पूड़ा में रखकर पूड़ा को आसन के दक्षिण भाग में इस मंत्र से उत्तान रखे और हिलावे नहीं - ॐ विश्वेभ्यः देवेभ्यः स्थानमसि ।। गन्धादि :- त्रिकुशा, जी, जल लेकर इस मंत्र से गन्धादि का उत्सर्ग करे - गोत्रस्य पितुः ....... प्रेतस्य सपिण्डीकरणनिमित्तक श्राद्धे पितामह-प्रपितामह-वृद्धप्रपितामहानाम्‌ शर्मणां सम्बन्धिनो विश्वेदेवा एतानि गन्धपुष्पधूप दीपताम्बूल यज्ञोपवीताऽऽच्छादनानि/विद्यमानोपकरणानि वो नमः ।। आसन सहित विश्वेदेवा के भोजन पात्र का जल से प्रदक्षिणक्रमानुसार मण्डल करे । दक्षि0 अप0 होकर अपने बांए भाग में भूस्वामि के अन्नादि का मोड़ा, तिल, जल लेकर उत्सर्ग करे - ॐ इदमन्रम्‌ एतद्‌ भूस्वामि पितृभ्यो नमः ।। “सुगम-श्राद्ध-विधि” 109 पूर्वाभिमुख सव्य हो त्रिकुशहस्त विश्वेदेवा के भोजनपात्र में अन्न, घी, मधु, जौ दे जलपात्र वा पूड़ा में जल व घी दे। मधुप्रक्षेप (व्यवहारात्‌ अन्नस्पर्श) :- त्रिकुश लेकर भोजनपात्र के अन्न में उत्तान दाहिना हाथ लगावे - ॐ मधुव्वाता ऋतायते मधुक्षरन्ति सिंधवः माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः मधुनक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिवं रजः । मधुद्यौरस्तु नः पिता मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमाँ2 अस्तु सूर्यः। माध्वीर्गावो भवन्तु नः।। ॐ मधुमधुमधु ॥ पात्रालम्भन :-दाहिने हाथ के नीचे उत्तान बायां हाथ लगाकर भोजन-पात्र स्पर्श करते हुए यह मंत्र पढ़े - ॐ पृथिवी ते पात्रं द्यौरपिधानं ब्राह्मणस्य मुखे ऽअमृते ऽअमृतं जुहोमि स्वाहा ।। ॐ इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम्‌ समूढमस्य पांसूले । ॐ कृष्ण हव्यमिदं रक्षमदीयम्‌ ।। अवगाहन :- बांये हाथ को भोजनपात्र में लगाए रखते हुए ही दाहिने हाथ के अंगूठा से भोजनपात्र का अन्न पूड़ा का जल और फिर अन्न छूए - ॐ इदमन्नम्‌ । (अन्न) । ॐ इमा आपः । (जल)। ॐ इदं हविः । (अत्र) ॥। भोजन :- त्रिकुश, जौ, जल लेकर मंत्र पढ़ते हुए विश्वेदेवान्न का उत्सर्ग करे - ॐ अद्य ....... गोत्रस्य पितुः ....... प्रेतस्य सपिण्डीकरणनिमित्तक श्राद्धे ....... गोत्राणां पितामह-प्रपितामह-वृद्धप्रपितामहानाम्‌ ....... शर्मणां सम्बन्धिनो विश्वेदेवा इदमन्नं सोपकरणं वो नमः।। (इसके बाद पितृश्राद्ध वेदी के पास बैठे) “सुगम-श्राद्ध-विधि” 110 प्रेतासन :- हाथ-पैर धोकर पितृ श्राद्ध-स्थान में आकर दक्षि0 अप0, पातितवानजानु होकर मोड़ा, तिल, जल ले मोटक रूप प्रेतासन का उत्सर्ग करे - ॐ अद्य ....... गोत्र पितः ........ प्रेते ( ....... गोत्रे मातः ...... प्रेते ) इदं आसनं ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। पितामहादयासन :- प्रेतासन दानान्तर त्रिकमोड़ा-तिल-जल लेकर पितामह-प्रपितामह एवं वृद्ध-प्रपितामहों को आसन दे- ॐ अद्य ........ गोत्राः पितामह-प्रपितामह-वृद्धप्रपितामहाः ....... शर्माणः इमानि आसनानि वः स्वधा।। (मातृश्राद्ध जीवितपितृ- ..... गोत्राः पितामही-प्रपितामही-वृद्धप्रपितामह्यः ...... देव्यः ) तिल-जल पश्चिम से पूर्व आसनो पर क्रमिक रूप से छीटे । अंजलिवत पितरों का आवाहन इस मंत्र से करे - ॐ पितृन्‌ अहम्‌ आवाहयिष्ये, उशन्तस्त्वा निधीमह्युशन्तः समिधीमहि । उशन्नुशत आवह पितृन्‌ हविषे अत्तवे ।। ॐ एत पितरः सोम्यासो गांभीरेभिः पथिभिः पूर्विणेभिः । दत्तास्मभ्यं द्रविणेहिभद्रं रयिञ्च नः सर्ववीरं नियच्छत ।। ॐ आयन्तु नः पितरः सोम्यासोऽअग्निष्वात्ताः पथिभिद्देवयानैः । अस्मिन्यज्ञे स्वधया मदन्तोऽधिन्रुवन्तु तेऽवन्त्वस्मान्‌ ।। “सुगम-श्राद्ध-विधि” तिलविकिरण :- ॐ अपहता असुरा रक्षांसि वेदिषदः ।। भोजनपात्र पर तिल छिड़के । अर्धघ्यस्थापन :- चारों अर्ध्यपुटकों में पवित्री देकर इन दोनों मंत्रों से जल व तिल दें :- ॐ शन्नो देवीरभिष्टये शत्रो भवन्तु पीतये । शंयोरभिस्रवन्तु नः ।। जल । ॐ तिलोऽसि पितुदेवत्यो गोसवो देवनिर्मितः । प्रलमद्विः पृक्तः स्वधया पितृन्‌ लोकान्‌ प्रीणाहि नः स्वधा ।। तिल । फूल व चंदन भी दे दें। अर्ध्याभिमंत्रण :- तदूत्तर प्रेतार्घपूड़ा को बाएं हाथ में लेकर उससे पैंता/कुश निकाल कर प्रेत भोजनपात्र पर दक्षिणाग्र रख जल से सिक्त करे, दाहिने हाथ से पूड़ा को ढंके - ॐ या दिव्या आपः पयसा सम्बभूबुर्या आन्तरिक्षा उत पार्थिवीर्याः । हिरण्यवर्णा यज्ञियास्ता न आपः शिवाः शं स्योनाः सुहवा भवन्तु ।। अर्ध्य :- मो.ति.जल ले प्रेतार्घ का निम्न मंत्र से उत्सर्ग करे - गोत्र पितः ........... प्रेत इदं अर्ध्य॑ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। उत्सर्गोपरान्त पूड़ा का चतुर्थ भाग जल भोजनपात्रस्थ कुश पर गिराकर कुश को पुनः अर्ध्यपूड़ा में रखकर अर्ध्यपात्र को यथास्थान रख दे । तदूत्तर त्रिकमोड़ा धारण पूर्वक पितामहादिकों के अर्ध्यपात्रों से पैंता/कुश को निकाल अग्रस्थ भोजन पात्र पर दक्षिणाग्र रखकर जल से सिक्त करके अर्ध्यपुटकों को दोनों हाथों से ढंककर पुनः “ॐ या दिव्या “सुगम-श्राद्ध-विधि” _ 112 भवन्तु” मंत्र पढ़े । तिल, जल से अर्ध्या का उत्सर्ग करे - गोत्राः पितामह-प्रपितामह-वृद्धप्रपितामहाः ........ शर्माणः इमानि अर्ध्यानि ये चात्र युष्मानुयाँश्च यूयमनु तेभ्यः वः स्वधा ।। एक (पश्चिम वाला) अर्ध्यपात्र दाहिने हाथ में लेकर सामने के भोजनपात्रस्थ कुश पर पितृतीर्थ से चतुर्थांश जल गिराकर कुश को पुनः पूड़ा में रख पूड़ा यथास्थान रखे, पुनः बीच वाले दूसरे व तीसरे पूड़े से भी वैसे ही चतुर्थांश अर्ध्य देकर कुश को पूड़ा में रखकर पूर्ववत यथास्थान रखे । पूर्वा? सव्य हो आचमन कर “ऊ विष्णुर्विष्णुर्हरिर्हरिः” पढ़ कर हरिस्मरण करे । अर्ध्यसंयोजन :- दक्षि0 अपसव्य होकर अग्रिम मंत्र से प्रेतार्घपात्र का जल अलग से पूर्वाग्र रखे हुए तीन खाली पूड़ों में से दो पूड़ों में समंत्र व एक में बिना मंत्र के एक-एक तिहाई जल दे दे - ॐ ये समानाः समनसः पितरो यमराज्ये । तेषां लोकः स्वधा नमो यज्ञो देवेषु कल्पताम्‌ । ॐ ये समानाः समनसो जीवा जीवेषु मामकाः । तेषां श्रीर्मयि कल्पतामस्मिंल्लोके शतं समाः ।। तदूत्तर पितामह सम्बन्धी पूड़े का समस्त जल प्रेतपूड़ा में लेकर & ये समानाः .......... समाः यह मंत्र पढ़कर पितामह के पूड़ा में सभी जल गिरा दे पुनः पूर्ववतू प्रपितामह संबंधी पूड़ा का जल प्रेतपूड़ा में ले प्रपितामह के अर्ध्यपूड़ा समंत्र दे दे । इसी विधि से समंत्र वृद्ध-प्रपितामह के अर्घ्यपूड़ा में भी जल देवे । “सुगम-श्राद्ध-विधि” न्युब्जीकरण :- कुश सहित प्रेतार्घपूड़ा को इस मंत्र से प्रेतासन से पश्चिम अधोमुख कर दे - ॐ पित्रे (मात्रे) स्थानमसि ।। दक्षिणा देने तक उस पूड़ा को नहीं हिलावे । वृद्धप्रपितामह के अर्ध्यपूड़ा का जल व कुश प्रपितामह के अर्ध्यपूडा में देकर यथास्थान रखे, फिर प्रपितामह के अर्ध्यपूड़ा का जल, कुश पितामह के अर्ध्यपूड़ा में गिराकर यथास्थान रखे । पितामहार्घपात्र को उठा कर प्रपितामहार्घ-पात्र में रखे फिर दोनों अर्ध्यपात्रों को उठाकर वृद्ध-प्रपितामहार्घ-पात्र में रखकर तीनों को दाहिने हाथ से पितामहादिकों के आसन से पश्चिम भाग में अधोमुखी कर दे - ॐ पितृभ्यः स्थानमसि ।। दक्षिणा देने तक उन पूड़ों को न हिलावे । गन्धादि :- प्रेतमोड़ा, तिल, जल लेकर प्रेत के गन्धादि का उत्सर्ग करे - गोत्र पितः ....... प्रेत एतानि गन्धपुष्पधूपदीपताम्बूल यज्ञोपवीताऽऽच्छादनानि/ विद्यमानोपकरणानि ते मया दीयन्ते तवोपतिष्ठन्ताम्‌ ।। त्रिक मोडा, तिल, जल लेकर पितामहादि तीनों के गन्धादि का उत्सर्ग करे - गोत्राः पितामह-प्रपितामह-वृद्धप्रपितामहाः ....... शर्माणः एतानि गन्थपुष्पधूपदीप ताम्बूल यज्ञोपवीतऽऽच्छादनानि/विद्यमानोपकरणानि ये चात्र युष्मानुयाँश्च यूयमनु तेभ्यः वः स्वधा ।। प्रेतमोडा लेकर पिता के भोजनपात्र व आसन के चारों ओर जल से मण्डल (अप्रदक्षिण) कर दे । पुनः त्रिकमोड़ा लेकर क्रमशः “सुगम-श्राद्ध-विधि” __ 114 पितामहादिकों के भोजनपात्र व आसन को भी जल से मण्डलित कर दें । अग्नौकरण :- पूर्वा0 सव्य होकर एक पूड़ा में जल भर कर रखे, दूसरे पूड़े में सिद्धाज्ञ, घी, जौ रखे । पातित-दक्षिण जानु होकर अनामिका और अंगूठा से पूड़ा का अन्नादि लेकर जल वाले पूड़े में दो बार आहुति प्रदान करे - ॐ स्वाहा सोमाय पितृमते ।। पहली आहुति ॐ स्वाहा अग्नये कव्यवाहनाय ।। दूसरी आहुति दे ।। अप0 दक्षि0 पितामहादि के भोजन पात्र पर थोड़ा-थोड़ा हुतशेषान्न दे दें । पुरुषाहारपारिमित प्रेतात्र, दूध, दही, घी, मधु, व्यञ्जनादि परोस कर एक पात्र में घृत मिश्रित सतिल-जल भोजन से उत्तरभाग में रख दे। अग्नीकरण हुतशेषान्न प्रेतपाक व पितामहादि-पाक में मिलाकर पिण्ड निर्माण कर पिण्डाधारपात्र में रख ले । पुनः पितमहादि तीनों के लिए भी भोजन और जल पात्रों में इसी तरह मिलाकर तीनों के वास्ते पिण्ड निर्माण कर पात्र में रख ले । मधुप्रक्षेप (व्यवहारात्‌ अन्नस्पर्श) : प्रेतत्रिकुशा लेकर भोजनपात्र के अन्न में अधोमुखी दाहिना हाथ लगावे- ॐ मधुव्वाता ऋतायते मधुक्षरन्ति सिंधवः माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः मधुनक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिवं रजः । मधुद्यौरस्तु नः पिता मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमाँ2 अस्तु सूर्यः। माध्वीर्गावो भवन्तु नः ।। ॐ मधुमधुमधु ।। पात्रालम्भन :- दाहिने हाथ के नीचे अधोमुख बायें हाथ से भोजनपात्र का स्पर्श करे - ॐ पृथिवी ते पात्रं द्यौरपिधानं ब्राह्मणस्य मुखे ऽअमृते ऽअमृतं जुहोमि स्वाहा ।। “सुगम-श्राद्ध-विधि” विद 115 ॐ इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम्‌ समूढ़मस्य पांसूले । ॐ कृष्ण कव्यमिदं रक्षमदीयम्‌ ।। अवगाहन :- बांये हाथ को भोजनपात्र में लगाए रखते हुए ही दाहिने हाथ के अंगूठा से भोजनपात्र का अन्न पूड़ा का जल, घी और फिर अन्न छूए - ॐ इदमन्नम्‌ । (अन्न) । ॐ इमा आपः । (जल)। ॐ इदं हविः । (अन्न) ।। भोजन :- दाहिने हाथ में मो.ति.जल लेकर प्रेतान्न का उत्सर्ग करे - गोत्र पितः ........ प्रेत इदमन्नं सोपकरणं ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। पुनः पूर्ववत्‌ पितामहादिकों के भोजनों का त्रिक-त्रिकुशा लेकर अधोमुख दाहिणे हाथ से स्पर्श कर “ॐ मधुव्वाता मधु ” मंत्र का पाठ करके दाहिने हाथ के नीचे बायां हाथ भी भोजन पात्र में लगा दे व “ ऊ पृथिवी मदीयम्‌ ” का पाठ करे । अवगाहन :- दाहिना हाथ हटा ले व अंगूठे से अन्न, जल, घी व अन्न का मंत्र पढ़ते हुए स्पर्श करे - ॐ इदमन्नम्‌ । (अन्न) । ॐ इमा आपः । (जल)। ॐ इदं हविः । (अन्न) ।। भोजन :- दाहिने हाथ मे त्रिकमोड़ा, तिल, जल लेकर पितामहादिकों के भोजन का उत्सर्ग करे - ॐ गोत्राः पितामह-प्रपितामह-वृद्धप्रपितामहाः ....... शर्माणः इदमन्नं सोपकरणं ये चात्र युप्मानुयाँश्च यूयमनु तेभ्यः वः स्वधा ।। “सुगम-श्राद्ध-विधि” बाएं हाथ को हटाकर पूर्वाएसव्य हो तीन बार गायत्री जप करे। दक्षिअप0 “ॐ मधुमधुमधु' पढकर यह मंत्र पढे - ॐ अन्नहीनं क्रियाहीनं विधिहीनं च यद्ववेत्‌ तत्‌ सर्वम्‌ अछिद्रम्‌ अस्तु ।। ूर्वा०सव्य होकर गायत्री जप करते हुए आसन के नीचे त्रिकुशा (संकल्प वाला) देकर फिर दक्षिअप0 'ऊ मधुमधुमधु' पाठ करे । फिर ॐ कृणुष्वपाजः ....................... प्रमृणीहि शत्रून्‌ ।। पाठकर भोजनपात्र पर तिल छिड़के । (पूरा मंत्र छं आद्य श्राद्ध में पु0. 97.) फिर ॐ उदीरतामवर रुचिः । पढ़े । (पूरा मंत्र छं आद्य श्राद्ध में पृ0. 98.) विकिरदान :- वेदी के पश्चिम त्रिकुश रखकर जल से सिक्त कर दे । एक पूड़ा में अन्नादि लेकर सिक्त कर मोड़ा के जड़ से सहारा देकर त्रिकुश पर बांए हाथ के पितृतीर्थं से दे - ॐ अग्निदग्धाश्च ये जीवा येऽप्यदग्धाः कुले मम । भूमौ दत्तेन तृप्यन्तु तृप्तायान्तु पराङ्गतिम्‌ ।। त्रिकुश धारण कर पूर्वा सव्य हो आचमन कर “ॐ विष्णुर्विषणुहरिर्हरिः” पढ़कर त्रिगायत्री जपे । फिर “ॐ मधु मधु मधु ” पाठ करे । उल्लेखन :- दक्षि अप0 होकर बालुकामयी वेदि को सिक्त कर पैंता लगे प्रेतमोड़ा से प्रेत-पिण्डस्थान में प्रादेशमात्र रेखा खींचे - ॐ अपहता असुरा रक्षांसि वेदिषदः ।। “सुगम-श्राद्ध-विधि” 117 पुनः पितामहादिकों के पिण्डस्थान में भी त्रिकमोड़ा के जड़ में पेता लगाकर “ ॐ अपहता ” मंत्र से प्रादेशमात्र रेखा खींचे । प्रादेशप्रमाण रेखाओं पर नौ छिन्नमूल कुश रखकर जल से सिक्त कर दे । पूर्वा सव्य हो तीन बार “ देवताभ्यः ” मंत्र पाठ करे - ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च । नमः स्वधायै स्वाहायै नित्यमेव भवन्त्विति ।। अत्रावन : बाएं हाथ में तिल, जल, पुष्प, चंदन युक्त एक पूड़ा लेकर दाहिने हाथ में प्रेतमोड़ा, तिल, जल ले - गोत्र पितः ........ प्रेत अत्रावने! निक्ष्व ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। उत्सर्ग कर पूड़ा का जलादि दाहिने हाथ के पितृतीर्थ से प्रेतपिण्ड स्थान के कुशों पर दे, जलस्पर्श करे। पुनः त्रिक-मोड़ा, तिल जल लेकर; पूर्वस्थापित पितामहादिक अवनेजन के तीन पूड़ाओं का इस मंत्र से उत्सर्ग करे - ॐ गोत्राः पितामह-प्रपितामह-वृद्धप्रपितामहाः ............ शर्माणः अत्रावने निग्ध्वं ये चात्र युष्मानुयाँश्च यूयमनु तेभ्यः वः स्वधा ।। उत्सर्गोपरांत क्रमशः अवनेजन पात्रों का जल बारी-बारी से वेदी के कुशाओं पर पितृतीर्थ से गिराकर जलस्पर्श करे। पिण्डदान :- बिल्वप्रमाण प्रेत-पिण्ड बाएं हाथ में लेकर प्रेतमोड़ा, तिल, जल लेकर उत्सर्ग करे - 1. एकवचन - निक्ष्व द्विवचन - निजाथाम बहुवचन - निर्ध्वं “सुगम-श्राद्ध-विधि” __ 118 गोत्र पितः .......... प्रेत एष पिण्डः ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। पिण्ड को दाएं हाथ में लेकर पितृतीर्थ से वेदीस्थित प्रेतपिण्डस्थान के कुशों पर रखे । जलस्पर्श । पुनः पितामह प्रपितामह और वृद्ध-प्रपितामहों के पिण्डों का भी बारी-बारी से तत्तत्‌ मोड़ा, तिल, जल ले उत्सर्ग करे - गोत्र पितामह (प्रपितामह/वृद्धप्रपितामह) शर्मन्‌ एष ते पिण्डः ये चात्र त्वानुयाँश्च त्वमनु तस्मै ते स्वथा ।। उत्सर्गोपरांत पिण्डों को पितामहादिकों के पिंडस्थान पर स्थापित कर जलस्पर्श करे । पितामहादिकों के पिण्डाधारस्थ कुशों में हाथ पोंछे - ॐ लेपभागभुजस्तृप्यन्तु ।। पूर्वा सव्य हो आचमन कर “ॐ विषणुर्विष्णु्हरिर्हरिः” पढ़कर हरिस्मरण करे। प्रत्यवन :- अप0दक्षि0 पिण्डनिमार्ण चारों-पात्रों को जल से प्रक्षाल उस जल को अलग-अलग चार-पूडों में रखकर तिल, पुष्प चंदन दे दे । प्रेत प्रत्यवन पूड़ा बाएं हाथ में लेकर प्रेतमोड़ा, तिल, जल ले प्रत्यवन उत्सर्ग करे - गोत्र पितः ....... प्रेत अत्र प्रत्यवने निक्ष्व ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। उत्सर्ग कर पूड़ा का जलादि दाहिने हाथ के पितृतीर्थ से प्रेतवेदी के कुशों पर गिराकर जलस्पर्श करे । पुनः त्रिकमोड़ा, तिल, जल लेकर पितामहादिकों के तीनों पत्यवनपूड़ा का उत्सर्ग करे - “सुगम-श्राद्ध-विधि” 119 गोत्राः पितामह-प्रपितामह-वृद्धप्रपितामहा: ......... शर्माणः अत्र प्रत्यवने निग्ध्वं ये चात्र युष्मानुयाँश्च यूयमनु तेभ्यः वः स्वधा ॥ पितामहादिकों के प्रत्यवन पूड़ा का जल पितृतीर्थं से पितामहादिकों के पिण्डों पर देकर जलस्पर्श करे । ईशानाभिमुख होकर इस मंत्र से श्‍वास लेकर सूर्य-स्वरूप पितर का ध्यान करे :- ॐ अत्र पितर्मादयस्व यथाभाग मा वृषायस्व ।। ॐ अमीमदत पिता यथाभाग मा वृषायिष्ट ।। दक्षिणाभिमुख इस मंत्र से श्वास छोड़े । पुनः करबद्ध ईशानाभिमुख होकर इस मंत्र से श्वास ले, सांस को रोक कर पितामहादिकों का ध्यान करे। ॐ अत्र पितरोमादयध्वं यथाभाग मावृषायध्वम्‌ ।। श्वास ले । ॐ अमीमदन्त पितरो यथाभाग मा वृषायिषत ।। दक्षिणाभिमुख श्‍वास छोड़े । दाहिने कोहनी से डांरकडोर को ससार कर, पूर्वा सव्य हो आचमन कर हरिस्मरण करे । अप0 दक्षि0 पिण्डों पर सूता दे- ॐ एतत्ते पितर्वासः/मातर्वासः ।। प्रेतमोड़ाधारण पूर्वक प्रेतपिण्ड पर सूता दे । ॐ एतद्‌ वः पितरो वासः ।। त्रिकमोड़ा लेकर पितामहादिकों के पिण्डों पर तीन सूता दे । वस्त्रोत्सर्ग :- प्रेत-मोड़ा, तिल, जल ले प्रेत-सूत्र का उत्सर्ग करे - “सुगम-श्राद्ध-विधि” 130 ॐ अद्य .......... गोत्र पितः ........... प्रेत एतद्वासः ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्‌ ।। त्रिकमोड़ा, तिल, जल लेकर पितामहादिकों के सूत्र का उत्सर्ग करे - ॐ अद्य ...... गोत्राः पितामह-प्रपितामह-वृद्धप्रपितामहाः ......... शर्माणः एतानि वासांसि ये चात्र युप्मानुयाँश्च यूयमनु तेभ्यः वः स्वधा ।। पिण्डसम्मेलन :- हाथ धोकर पितरों का ध्यान करते हुए बिना मंत्र के पहले प्रेतपिण्ड पर पान, सुपारी, पुष्प, चन्दनादि चढ़ाकर पिण्ड के चारों ओर पिण्ड शेषान्न बिखेर दे । फिर पितामहादिकों के पिण्डों पर पान-सुपारी, पुष्प, चन्दनादि चढ़ाकर पिण्ड के चारों ओर पिण्ड शेषान्न बिखेरे । पुनः त्रिकुशा के जड़ से पिण्डस्थ पानादिकों को हटा कर स्वर्ण/रजत शलाका को दोनों हाथ से पकड़कर “ ये समानाः .......... समाः’ मंत्र पढ़ते हुए प्रेत-पिण्ड का तृतीय भाग काटे पुनः मंत्र पढ़कर दुबारा तृतीय भाग काटे- ॐ ये समानाः समनसः पितरो यमराज्ये । तेषां लोकः स्वधा नमो यज्ञो देवेषु कल्पताम्‌ ।। ॐ ये समानाः समनसो जीवा जीवेषु मामकाः । तेषां श्रीर्मयि कल्पतामस्मिल्लोके शतं समाः।। प्रेत-पिण्ड को दो बार तृतीयांश काटने पर तीन भाग बनेगा। एक-एक भाग को “ ये समानाः ..... समाः’ मंत्र पढ़ते हुए क्रमशः पितामहादिकों के तीनों पिण्ड में मिला दे । पुनः सब पिण्डों को एकत्र मिला कर गोल कर दे तथा पिता-पितामहादिकों का ध्यान करते हुए पिण्ड पर पितृतीर्थं से चार अंजलि जल दे। “सुगम-श्राद्ध-विधि” 121 पिण्डपूजन :- चन्दन-फूल-माला-पान-मखान-द्रव्यादि चढ़ाकर पिण्ड पूजा करे । पिण्ड शेषान्न पिण्ड के समीप बिखेर दे । दोनों हाथों से प्रणाम करते हुए यह मंत्र पढे - ॐ वसन्ताय नमस्तुभ्यं ग्रीष्माय च नमो नमः । वर्षाभ्यश्च शरत्संज्ञ ऋतवे च नमः सदा ।। हेमन्ताय नमस्तुभ्यं नमस्ते शिशिराय च । मास संवत्सरेभ्यश्च दिवसेभ्यो नमः सदा ।। ॐ वसन्तादि षड्ऋतुभ्यो नमः ।। पिण्ड पर फूल चढ़ा दे । पूर्वा0 सव्य त्रिकुश-हस्त हो कर विश्वेदेवान्न पर, फिर दक्षि0 अप0 मोटकहस्त पिता, पितामहादि चारों के भोजनों पर मंत्र पढ़ते हुए जल, फूल व अक्षत चढ़ावे - ॐ शिवा आपः सन्तु।। (जल) ॐ सौमनस्यमस्तु।। (फूल) ॐ अक्षतंचारिष्टमस्तु।। (अक्षत) अक्षय्योदक :- तदूत्तर चार पूड़ा में जल, चन्दन, फूल, तिल, घी, मधु देकर अक्षय्योदक बना ले । प्रेत-मोड़ा, तिल जल लेकर प्रेत के अक्षय्योदक का उत्सर्ग करते हुए पिण्ड पर पूड़ा का जल दे दे - ऊ अद्य पित मा प्रेतस्य दत्तैतदन्नपानादिकमुपतिष्ठताम्‌ ।। पुनः त्रिकमोड़ा, तिल, जल लेकर तीनों अक्षय्योदकों का उत्सर्ग कर पितामहादिकों के वास्तै पिण्ड पर दे - गोत्राणं पितामह-प्रपितामह-वृद्धप्रपितामहानाम्‌ शर्मणां एतानि दत्तैतदन्न पानादिकानि अक्षय्यानि सन्तु ।। “सुगम-श्राद्ध-विधि” जलधारा :- पूर्वाएसव्य हो एक पूड़े में जल लेकर दक्षिण ओर देखते हुए इस मंत्र से पिण्ड पर पूर्वाग्र जलधारा दे - ॐ अघोराः पितरः सन्तु ।। (अंजलिबद्ध) ॐ गोत्रं नो वर्धताम्‌ ।। पूर्वा0 प्रणाम कर पढ़े । अप0 दक्षि0 त्रिकुशा से पिण्डस्थ सूत्रादि को हटाकर त्रिकशा को पिण्ड पर दक्षिणाग्र करके रख दे । एक पूड़ा में जल तिल, पुष्प, चंदन या दूध लेकर इस मंत्र से पिण्डथ कुश पर धारा दे - ॐ ऊर्ज्ज॑ वहन्तीरमृतं घृतं पयः कीलालं परिश्रुतम्‌ । स्वधास्थ तर्पयत्‌ मे पितृन्‌ ।। पूर्वा0 सव्य हो त्रिकुशा जल लेकर मंत्र पढ़ते हुए विश्वेदेवान्नपात्र पर जल दे - ॐ विश्वेदेवाः प्रीयन्ताम्‌ ।। पूर्वस्थापित विश्वेदेवार्घपात्र को पूर्व की ओर हिला दे । अप0 दक्षि0 विनम्रभाव से पिण्ड को सूंघकर दोनों हाथ से थोड़ा उठाकर फिर रख दे, पिण्डतलस्थ कुशों को निकालकर आग में दे, अधोमुखी अर्ध्यपात्रों को उत्तान करे । विश्वेदेव श्राद्धदक्षिणा :- पूर्वा? सव्य0 हो त्रिकुशा, तिल, जल लेकर विश्वेदेवश्राद्ध की दक्षिणा करे - गोत्रस्य पितुः ....... रेतस्य (..... गोत्रायाः मातुः ..... प्रेताया) सपिण्डीकरण निमित्तक गोत्राणां पितामह-प्रपितामह-वृद्धप्रपितामहानाम्‌ शर्मसम्बन्धिनां विश्वेषां देवानां कृतैततु श्राद्धप्रतिष्ठार्थम॒ एतावत्‌ द्रव्यमूल्यकहिरण्यं अग्निदैवतं यथानामगोत्राय ब्राह्मणाय दक्षिणां दातुमहमुत्सुज्ये ।। “सुगम-श्राद्ध-विधि” 123 प्रेतश्राद्ध दक्षिणा :- अप0 दक्षि0 प्रेतमोड़ा, तिल, जल ले करे प्रेत श्राद्ध की दक्षिणा करे - ॐ अद्य गोत्रस्य पितुः ....... प्रेतस्य कृतैतत्‌ सपिण्डीकरण श्राद्धप्रतिष्ठार्थम्‌ एतावत्‌ ्रव्यमूल्यकं रजतं चन्द्र दैवतं गोत्राय शर्मणे ब्राह्मणाय दक्षिणां तुभ्यमहं सम्प्रददे।। मंत्र का पढ़कर ब्राह्मण को दक्षिणा दे और ब्राह्मण “ॐ स्वस्ति’ कहकर दक्षिणा ले ले । पितामहादित्रय श्राद्ध दक्षिणा :- पुनः त्रिकमोड़ा, तिल, जल लेकर पितामहादिक श्राद्ध की दक्षिणा करे - गोत्रस्य पितुः ...... प्रेतस्य सपिण्डीकरणनिमित्तक श्राद्धे गोत्राणां पितामह-प्रपितामह-वृद्धप्रपितामहानाम्‌ शर्मणां कृतैतानि आद्धानि प्रतिष्ठार्थम्‌ एतावत्‌ द्रव्यमूल्यकं रजतं चन्द्रदैवतं यथानामगोत्राय ब्राह्मणाय दक्षिणां दातुमहमुत्सृज्ये ।। इस मंत्र का पढ़कर ब्राह्मण को दक्षिणा दे और ब्राह्मण “ ॐ स्वस्ति ” कहकर दक्षिणा ले ले । हाथपैर धोकर पूर्वा0 सव्य आचमन कर प्रसन्नचित्त करबद्ध पितरों से आशीर्वाद मांगे - ॐ दातारो नोऽभिवद्धन्ताम्‌ वेदाः सन्ततिरेव च । श्रद्धा च नो मा व्यग्मद्‌ बहुदेयञ्च च नोऽअस्तु ।। अन्नं च नो बहुभवेत्‌ अतिर्थीश्च लभेमहि । याचितारश्च नः सन्तु मा च याचिष्म कञ्चन ।। एताः सत्याशिषः सन्तु ।। पूर्वा सव्य आचमन कर तीन बार देवताभ्यः पढे - “सुगम-श्राद्ध-विधि” ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च । नमः स्वधायै स्वाहायै नित्यमेव भवन्त्विति ।। वामदेवगान : “ कयान इति महावामदेवऋषिर्गायत्रि छन्दः इन्द्रो देवता अग्निष्टोमादौ द्वितीयपृष्ठे शान्ति कर्मणि जपे विनियोगः ” ॐ कयानश्चित्र आभुव दूती सदा वृधः सखा । कया शचिष्ठया वृता । कस्त्वा सत्यो मदानां मंहिष्ठो मत्सदन्धसः दृढ़ा च दारुजे वसु । अभीषुणः सखीनामविता जरतृणां शतं भवास्यूतये ।। ॐ स्वस्ति नऽइन्द्रोवृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः । स्वस्तिनस्ताक्ष्यो ऽअरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु । ॐ स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ।। ॐ प्राजापत्यं वै वामदेव्यं प्रजापतावेव प्रतिष्ठायोत्तिष्ठन्ति । ॐ पशवो वै वामदेव्यं पशुष्वेव प्रतिष्ठायोत्तिष्ठन्ति । ॐ शान्तिर्वे वामदेव्यं शान्तावेव प्रतिष्ठायोत्तिष्ठन्ति । ॐ अत एतत्‌ कर्माऽच्छिद्रमस्तु ।। अप0 होकर दीप बुझाकर हाथपैर धो, पूर्वा) सव्य आचमन कर प्रमादातू मंत्र पढ़कर श्राद्धसामग्री ब्राह्मण को दे दे- ॐ प्रमादात्कुर्वतां कर्म प्रच्यवेताध्वरेषु यत्‌ । स्मरणादेवतद्विष्णोः सम्पूर्णं स्यादिति श्रुतिः ।। ॐ विष्णुर्विषणुहरिर्हरिः ।। पिण्डवेदी को थोड़ा तोड़ दे । भगवान सूर्य को नमस्कार करे । पिण्डादि का जलप्रवाह करे वा यथाविधि विसर्जन करके “सुगम-श्राद्ध-विधि” 125 उत्तरीय को खुलवा कर स्नान कर ब्राह्मणों को भोजन कराये विधि-अनुसार आंगन आकर कलशपूजन कुटुम्बप्रदत्त वस्त्र-अन्नादि दानोपरांत पगरीबन्धन करे । ब्राह्मण एवं गुरुजनों से आशीर्वाद ग्रहण करे । ।। इति पं0 दिगम्बर झा सुसम्पादितं छन्दोगानां सपिण्डन श्राद्ध विधिः ।। विशेष :- पगरीबन्धन जिसके पिता की मृत्यु हो चुकी है, उसी का किया जाना चाहिए । जिसके पिता जीवित हों उसका पगरीबन्धन नहीं करना चाहिए ; मात्र गमछा या चादर ही देना चाहिए । ।। सामान्योत्सर्ग विधि ।। आद्यश्राद्ध के दिन अथवा द्वादशाह को आंगन में शय्यादि का उत्सर्ग भी करे । सामान्योत्सर्ग एकादशाह और द्वादशाह दोनों दिन करते देखा जाता है । मिथिला में विशेषतः एकादशाह के दिन ही सामान्योत्सर्ग किया जाता है। यदि द्वादशाह के दिन यह सपिण्डनोपरांत किया जाए तो प्रेत शब्द के स्थान पर शर्मादि का प्रयोग करें । पवित्रित्रिकुशादि धारण पूर्वक पूर्वाभिमुख आसनान्न, उपकरणादि व शरीर पर जल छिड़के - ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थाङ्गतोऽपिवा यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यंतरः शुचिः । पुण्डरीकाक्षः पुनातु ।। ॐ पुण्डरीकाक्षः पुनातु ॥ “सुगम-श्राद्ध-विधि” 1. शय्यादान : ॐ सोपकरणशय्यायै नमः ।। 31। शय्या पर तीन बार पुष्पाक्षत छींटे । ॐ ब्राह्मणाय नमः ।। 3।। कुश पर तीन बार पुष्पाक्षत छींटे । शय्या को जल से सिक्त कर दे । त्रिकुश, तिल, जल लेकर उत्सर्ग करे - गोत्रस्य पितुः ...... प्रेतस्य (..... गोत्रायाः मातुः ..... प्रेतायाः) स्वर्ग लोक प्राप्तिकाम इमां सोपकरणां शय्यां विष्णु दैवताम्‌ यथानाम गोत्राय ब्राह्मणाय अहं ददे ।। त्रिकुश, तिल, जल लेकर दक्षिणा करे - ॐ अद्य कृतैतत्‌ सोपकरण शय्यादान प्रतिष्ठार्थम्‌ एतावद्द्रव्यमूल्यकहिरण्यं अग्निदैवतं यथानाम गोत्राय ब्राह्मणाय दक्षिणां दातुमहमुत्सृज्ये ।। 2. हिरण्यदान : ॐ फलवस्त्रसमन्वित हिरण्याय नमः ।(3।। हिरण्य पर तीन बार पुष्पाक्षत छींटे । ॐ ब्राह्मणाय नमः ।। 3।। कुश पर तीन बार पुष्पाक्षत छींटे । जलेन सिक्त्वा । सवर्गलोकप्रातिकाम इमं फलवस्त्रसमन्वितहिरण्यं विष्णुदैवतं ब्राह्मणाय अहं ददे।। पुनः त्रिकुश, तिल, जल लेकर दक्षिणा करे - ॐ अद्य कृतैतत्फलवस्त्रसमन्वितहिरण्यदान प्रतिष्ठार्थं एतावत्‌ दक्षिणां दातुमहमुत्सृज्ये ।। “सुगम-श्राद्ध-विधि” __ 127 3. मज्जूषा : ॐ सोपकरणमञ्जूषायै नमः ।। 3।। मञ्जूषा पर तीन बार पुष्पाक्षत छींटे । ॐ ब्राह्मणाय नमः ।। 3।। कुश पर तीन बार पुष्पाक्षत छींटे । जलेन सिक्त्वा । इमां सोपकरणां मञ्जूषां वनस्पतिदैवताम्‌ यथानाम गोत्राय ब्राह्मणाय अहं ददे।। ॐ अद्य कृतैतत्सोपकरण मग्जूषादान प्रतिष्ठार्थम्‌ दक्षिणां दातुमहमुत्सृज्ये ।। 4. ओदनपाकपात्र : ॐ (सदर्विक) सतण्डुलतण्डुलपाकपात्राय नमः।3।। ॐ ब्राह्मणाय नमः।। ३।। इदं (सदर्विक) सतण्डुलतण्डुलपाकपात्रं विष्णुंदैवतं यथानामगोत्रायब्राह्मणाय अहं ददे।। ॐ अद्य कृतैतत्‌ (सदर्विक) सतण्डुलतण्डुलपाकपात्रदान प्रतिष्ठार्थम्‌ दक्षिणां दातुमहमुत्सृज्ये ।। 5. द्विदलपाकपात्र : ॐ सद्विदल-द्विदलपाकपात्राय नमः ।। ३।। ॐ ब्राह्मणाय नमः ।। 3॥। ड दक्षिणां दातुमहमुत्सृज्ये ।। 6. व्यञ्जनपाकपात्र : ॐ (सचालक-छोलनी) सव्यञ्जन-व्यञ्जनपाकपात्राय नमः ।। 31। ॐ ब्राह्मणाय नमः ।|3।। सव्यञ्जन-व्यञ्जनपाकपात्रं दक्षिणां दातुमहमुत्सृज्ये ।। 7. परिवेषणपात्र(गमला) : ॐ ओदनादिपरिवेषणपात्राय नमः ।3।। ॐ ब्राह्मणाय नमः।|3।। ॐ अद्य ओदनादिपरिवेषणपात्रं दक्षिणां दातुमहमुत्सृज्ये ।। “सुगम-श्राद्ध-विधि” __ 128 8. भोजनपात्र(थाली) : ॐ भोजनपात्राय नमः ।। 3॥। ॐ ब्राह्मणाय नमः ।। ३।। ॐ अद्य भोजनपात्रं दक्षिणां दातुमहमुत्सृज्ये ।। 9. द्विदलभोजनपात्र : ॐ सद्विदल-द्विदल भोजनपात्राय नमः ।। 3।। ॐ ब्राह्मणाय नमः ।3॥। ॐ अद्य .... सद्विदल-द्विदल भोजनपात्रं दक्षिणां दातुमहमुत्सृज्ये ।। 10. जलपात्र(लोटा-गिलास) : ऊँ सजल-लघु-गुरु जलपानपात्राभ्यां नमः ।। ३।। ॐ ब्राह्मणाय नमः ॥3।। ॐ अद्य जलपानपात्रे वरुणदैवते दक्षिणां दातुमहमुत्सृज्ये ।। 11. जलोद्वाहन पात्र(बाल्टी) : ॐ सरज्जू-सजल-जलोद्वाहनपात्राय नमः ।। ३।। ॐ ब्राह्मणाय नमः।[।। ॐ पात्र वरुणदैवतं दक्षिणां दातुमहमुत्सृज्ये ।। 12. गीता दान : ॐ महाभारतान्तर्गत सावरण श्रीमद्रगवद्‌ गीता पुस्तकाय नमः ।। ३॥। ॐ ब्राह्मणाय नमः ।। 3॥। पुस्तकं सरस्वती दैवतं दक्षिणां दातुमहमुत्सृज्ये ।। कुडव(बीघा)/काण्ड(कट्ठा) परिमित प्रियदत्तभूम्यै नमः ।। 3।। ॐ ब्राह्मणाय नमः ।। ३।। ॐ अद्य कुडव/काण्ड परिमितांप्रियदत्तभूमिं विष्णुदैवताम्‌ दक्षिणां दातुमहमुत्सृज्ये ।। “सुगम-श्राद्ध-विधि” 129 14. आम्रवृक्ष (देय वृक्ष का ध्यान करते हुए) : ॐ आम्रवृक्षाय नमः ।। 31। ॐ ब्राह्मणाय नमः।। 31। मनसेप्सितं आम्रवृक्षं वनस्पतिदैवतं दक्षिणां दातुमहमुत्सृज्ये ।। 15. ॐ पूजोपकरणेभ्यो नमः ।। ३।। ॐ ब्राह्मणाय नमः ।। ३।। ॐ अद्य पूजोपकरणानि विष्णुदैवतानि ददे दक्षिणां दातुमहमुत्सृज्ये ।। 16. दीप(लालटेन) : ॐ प्रज्वलित काचघटित प्रदीपाय नमः ।। ३।। ॐ ब्राह्मणाय नमः।।3।। प्रज्वलित काचघटितप्रदीपं अग्निदैवतं दक्षिणां दातुमहमुत्सृज्ये ।। 17. सप्तधान्य : ॐ सदक्षिणाकसप्तधान्येभ्यो नमः ।। 3 ॥ ॐ ब्राह्मणाय नमः ।। ३॥। ॐ अद्य एतानि सदक्षिणाकानि सप्तधान्यानि प्रजापति दैवतानि यथानाम गोत्राय ब्राह्मणाय अहं ददे ।। 18. चूड़ा-दही-चीनी : ॐ ससितादधिचिप्टान्नेभ्यो नमः।। 3।। ॐ ब्राह्मणाय नमः ।। ३।। एतानि ससितादधिचिप्टान्नानि प्रजापति दैवतानि दक्षिणां दातुमहमुत्सृज्ये ।। 19. पुड़ी-मिठाई : ॐ समिष्टान्रशष्कुलीभ्यो नमः।। ३।। ॐ ब्राह्मणाय नमः ।। ३।। ड एताः समिष्टान्नशष्कुलीः प्रजापति दैवताः दक्षिणां दातुमहमुत्सृज्ये ।। 20. लौह-लवण-कार्पास : ॐ लौह-लवण-कार्पासिभ्यो नमः ।। 3॥। ॐ ब्राह्मणाय नमः ।[3।। “सुगम-श्राद्ध-विधि” 130 एतानि लौहलवणकार्पासानि यमसोमवनस्पति दैवताकानि दक्षिणां दातुमहमुत्सुज्ये ।। 21. ताम्बूल : ॐ ताम्बूलेभ्यो नमः ।। ३॥। ॐ ब्राह्मणाय नमः ।। ३॥। ताम्बूलानि गन्धर्वदैवतानि दक्षिणां दातुमहमुत्सृज्ये ।। 22. मुद्रिका : ॐ मुद्रिकायै नमः ।। ३॥। ॐ ब्राह्मणाय नमः ।। ३॥। ॐ अद्य मुद्रिकां विष्णुदैवताम्‌ दक्षिणां दातुमहमुत्सृज्ये ।। 23. फल : ॐ फलेभ्यो नमः ।। 31 ॐ ब्राह्मणाय नमः ।। ३।। इमानि फलानि वनस्पति दैवतानि दक्षिणां दातुमहमुत्सृज्ये ।। ॐ सोपकरण कामरूपिका क्वथनपात्राय नमः।। 3।। ॐ ब्राह्मणाय नमः ।। ३॥। क्वथनपात्रं विष्णुदैवतं दक्षिणां दातुमहमुत्सृज्ये ।। 25. स्टोव : ॐ समृत्तैलमृत्तैलचूल्लीयंत्राय ।। 31। ॐ ब्राह्मणाय नमः ।। ३॥। ॐ अद्य समृत्तैलमृत्तैलचूल्लीयंत्र विश्वकर्मदैवतं दक्षिणां दातुमहमुत्सृज्ये ।। 26. जग : ॐ सजल-जलपरिवेषणपात्राय नमः ।। ३।। ॐ ब्राह्मणाय नमः ।। ३॥। पात्रं वरुणदैवतं दक्षिणां दातुमहमुत्सृज्ये ।। “सुगम-श्राद्ध-विधि” 131 27. वर्षभोज्य : ॐ सदक्षिणाक वर्षभोज्यान्नेभ्यो नमः ।। 3 ।। ॐ ब्राह्मणाय नमः ।। 31। एतानि सदक्षिणाकानि वर्षभोज्यान्नानि प्रजापति दैवतानि यथानाम गोत्राय ब्राह्मणाय अहं ददे ।। 28. गोमूल्यदान : ॐ एतावत्‌ द्रव्यमूल्यक सवत्सगव्यै नमः ।। 3।। ॐ ब्राह्मणाय नमः ।। 3॥। स्वर्गकाम एतावत्‌ द्रव्यमूल्योपकल्पितां सवत्सां गर्वी रुद्रदैवतां यथानाम गोत्राय ब्राह्मणाय अहं ददे ।। ॐ अद्य कृतैतत्‌ द्रव्यमूल्योपकत्पित सवत्सगवीदान प्रतिष्ठार्थं एतावतू द्रव्यमूल्यकहिरण्यं दक्षिणां दातुमहमुत्सृज्ये ।। परात - बृहत्स्थाली, जग - जलपरिवेषण पात्र, खड़ांव - काष्ठपादुका, घड़ी - घटिकायंत्र या कालचक्रयंत्र, साइकिल - पादयान कुसी - उच्चासन, जलेबी - कुण्डलिनी, रसगुल्ला - दुग्धपूपिका, पेड़ा - पिण्ड, फूलडाली - पुष्पकरण्ड, पंखा - व्यजन खिचड़ी - कृसड़ान्न, हंसिया - कर्तनि । “सुगम-श्राद्ध-विधि” द्रव्यदेवता कथन अभयं सर्वदैवत्यं भूमिर्वै विष्णुदेवता । कन्यादानस्तथा दासी प्राजापत्याः प्रकीर्तिताः ।। प्राजापत्यो गजः प्रोक्तस्तुरगो यमदैवतः । तथा चैकशफं सव॑ कथितं यमदैवतम्‌ ।। महिषश्च तथा याम्य उष्ट्रो वै नैऋतो भवेत्‌। रौद्री धेनुर्विनिर्दिष्टा छागमाग्नेयमादिशेत्‌ ॥ मेषन्तु वारुणं विद्याद्वाराहं वैष्णवं तथा । आरण्याः पशवः सर्वे कथिता वायुदेवताः ।। जलाशयानि सर्वाणि वारुणानि द्विजोत्तमाः । आग्नेयं कनक प्रोक्तं सर्वलोहानि चाप्यथ ।। प्राजापत्यानि सस्यानि पक्वान्नमपि च द्विज । संज्ञेयाः सर्वगन्धाश्च गन्धर्वा वै विचक्षणैः ।। विद्या ब्राह्मी विनिर्दिष्टा विद्योपकरणानि च । सारस्वतानि ज्ञेयानि पुस्तकादीनि पण्डितैः ।। सर्वेषां शिल्पभाण्डानां विश्वकर्मा तु देवता । द्रुमाणामथ पुष्पाणां शाकैर्हरितकैस्तथा ।। फलानामथ सर्वेषां तथा ज्ञेये वनस्पतिः । छत्रं कृष्णाजिनं शय्यां रथमासनमेव च ।। उपानहौ तथा पात्रं यच्चान्यत्प्राणवर्जितम्‌ । सर्वं चाड्िगिरसत्वेन प्रतिगृह्णीत आनवः।। शूरोपयोगी यत्सव॑ शत्त्रचर्मध्वजादिकम्‌ । नृपोपकरणं सर्वं विज्ञेयं सर्वदैवतम्‌ ।। गृहन्तु शक्रदैवत्यं यदनुक्तं द्विजोत्तमाः । विज्ञेयं विष्णुदैवत्यं सर्वदा द्विजसत्तम ।। “सुगम-श्राद्ध-विधि” ।। पुरुष-सूक्त ( शुक्ल यजुर्वेदीय ) ।। हरिः ॐ सहस्रशीर्षापुरुषःसहस्राक्षः सहस्रपात्‌। स भूमि . सर्वतस्पृतत्ात्त्तिष्टृद्दशाङ्गुलम्‌ पुरुषऽएवेद _ सर्व य्यद्ूतंग्यच्च भाव्यम्‌ । उतामृतत्त्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ~ एतावानस्य महिमातोज्ज्यायाँश्च्च पूरुषः । पादोऽस्यव्विशश्वाभूतानि त्रिपादस्यामृतन्दिवि तरिपादूर्ध्व ऽउदैत्पुरुषः पादो ऽस्येहाभवत्पुनः। ततो व्विष्ष्वङ्व्यक्रामत्‌ साशनानशनेऽअभि ततोव्विराडजायत व्विराजोऽअधि पूरुषः । सजातोऽअत्यरिच्च्यत पश्च्चाद्ूमिमथोपुरः तस्माद्यज्ञात्सर्व्वहुतः सम्भृतम्पृषदाज्ज्यम्‌ । पशूस्ताँश्चकक्रेव्वायव्यानारण्ण्याग्ग्राम्याश्च्चये तस्मादज्ञात्सर्व्वहुत ऽऋचः सामानिजज्ञिरे । छन्दा सिजज्ञिरे तस्म्माद्यजुस्तस्म्मादजायत तस्म्माद*श्वाऽअजायन्त येके चोभयादतः। गावोहजज्ञिरे तस्म्मात्तस्म्माज्जाताऽअजावयः तंययज्ञम्बर्हिषिप्रौक्षन्नपुरुषञ्जातमग्ग्रतः । तेन देवाऽअयजन्त साद्धयाऽऋषयश्च्च ये “सुगम-श्राद्ध-विधि” यत्पुरुषंव्व्यदधुः कतिधाव्व्यकल्प्पयन्‌ । मुखडूकमस्यासीत्किम्बाहू किमूरू पादा 5उच्च्येते ब्राह्मणो उस्यमुखमासीदूबाहू राजन्न्यः कृतः। ऊरू तदस्ययदूद्वैश्यः पद्भया _ शूद्रोऽअजायत चन्द्रमा मनसो जातश्श्चक्षोः सूर्य्यो ऽअजायत। श्रोत्राद्दायु*श्चप्राण^श्च मुखादग्निरजायत नाभ्याऽआसीदन्तरिक्ष | शीर्ष्णो द्यौः समवर्त्तत । ~ पद्व्याम्भूमिर्हिशः श्रोत्रात्तथालोकाँ 25अकल्पयन्‌ ।।13।। यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्न्वत । व्वसन्तोऽस्यासीदाज्ज्यङ्ग्रीष्मऽइध्मः शरद्धविः सप्प्तास्यासन्न्परिधयरित्रः सप्त समिधः कृताः । देवायद्यज्ञन्तन्न्वानाऽअबध्नन्न्पुरुषम्पशुम्‌ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्म्माणि प्प्रथमान्न्यासन्‌ । तेहनाकम्महिमानः सचन्तयत्र पूर्व्वेसाद्धयाः सन्तिदेवाः ।। 161। 1110 ।। ।।11।। ।।12 | | | 14 | | 111511 “सुगम-श्राद्ध-विधि” 135 ।। रुद्रसूक्त ।। हरिः ॐ नमस्ते रुद्र मन्यवऽउतोतऽइषवे नमः । बाहुब्म्यामुत ते नमः।॥।। या ते रुद्र शिवा तनूरघोराऽपाप काशिनी । तयानस्तन्वा शन्तमया गिरिशन्ताभिचाकशीहि ।।2।। यामिषुड्गिरिशन्त हस्ते बिभर्ष्ष्यस्तवे । शिवाङ्गित्रताङ्कुरु मा हि | सीः पुरुषज्जगत्‌ ।।3।। शिवेनव्वचसा त्त्वा गिरिशाच्छाव्वदामसि । यथा नः सर्वमिज्जगदयक्ष्म _ सुमनाऽअसत्‌ ।।4।। अद्धयवो च दधिवक्क्ता प्प्रथमो दैव्योभिषक्‌ । अहीं*श्च सर्वाञ्जम्भयन्त्सर्वा^श्च यातुधान्यो ऽधराचीः परासुव ।।5।। असौ यस्ताम्म्रोऽअरुणऽउतबब्प्रुः सुमङ्गलः । ये चैन ` रुद्राऽअभितो दिक्षुश्श्रिताः सहस्रशोऽवैषा ˆ हेड ऽईमहे ।।6।। असौयोऽवसर्प्पति नीलग्ग्रीवो व्विलोहितः । उतैनङ्गोपाऽअदृशश्रन्नदृश्श्रन्नुदहार्यः सदृष्ट्रो मृडयाति नः ।।7।। नमोऽस्तु नीलग्ग्रीवाय सहस्राक्षायमीढुषे। अथोयेऽअस्य सत्त्वानोऽहन्तेब्भ्यो ऽकरन्रमः।।8।। प्रमुञ्च धन्वनस्त्वमुभयो रात्त्वन्यो््ज्याम्‌ । याश्च्च ते हस्तऽइषवः पराता ब्मगवोव्वप ।।9।। व्विज्ज्यन्धनुः कपर्दिनो व्विशल्ल्यो बाणवा 2 ऽउत । अने शन्नरस्ययाऽइषवऽआभुरस्यनिषङ्‌गधिः ।1101। याते हेतिरम्मीढुष्टमहस्ते बभूव ते धनुः । तयास्म्मान्न्विशश्वतस्त्वमयक्ष्म्या परिभुज ।।111। परि ते धन्न्वनो हेतिरस्म्मानव्वृणक्तु व्विशश्वतः । अथो यऽइषुधिस्तवारे ऽअस्म न्निधेहितम्‌ ।।12।। अवतत्त्य धनुष्ट्व _ सहस्लाक्षशतेषुधे । निशीर्य्य शल्ल्यानाम्मुखा शिवोनः सुमना भव ।।13।। नमस्तऽआयुधायानातताय धुष्ष्णवे । उभाब्भ्यामुतते नमो बाहुब्भ्यान्तवधन्न्वने ।।141। मानो महान्तमुत मानो 5अर्ब्मकम्मान 5उक्षन्तमुतमान 5उक्षितम्‌ । मानोव्वधीः पितरम्मोत मातरम्मानः “सुगम-श्राद्ध-विधि” 136 प्परियास्तन्न्वो रुट्ररीरिषः ।॥5।। मानस्तोके तनयेमानऽआयुषिमानो गोषु मानो 5अशश्वेषु रीरिषः । मानो व्वीरान्त्रुद्र भामिनोव्वधीर्हविष्म्मन्तः सदमित्त्वा हवामहे ।।161। नमो हिरण्ण्यबाहवे सेनान्न्ये दिशाञ्चपतये नमोनमो व्वृक्षेब्म्योहरिकेशेब्भ्यः पशूनाम्पतये नमोनमः शष्प्पिञ्जराय त्तिवषीमते पथीनाम्पतये नमोनमो हरिकेशायोपवीतिने पुष्ट्टानाम्पतये नमोनमो बब्भ्लुशाय ।।17।। नमोबब्भ्लुशायव्व्याधिने ऽन्नानां पतये नमो नमो भवस्यहेत्त्यै जगताम्पतये नमोनमो रुद्रायाततायिने क्षेत्राणाम्पतये नमोनमः सूतायाहन्त्यै व्वनानम्पतये नमो नमो रोहिताय।।18।। नमो रोहितायस्त्थपतये व्ृक्षाणाम्पतये नमोनमो भुवन्तये व्वारिवस्कृतायौषधीनाम्पतये नमोनमो मन्त्रिणे व्वाणिजाय कक्षाणाम्पतये नमोनमऽउच्चैग्घोषाया क्क्रन्दयतेपत्तीनाम्पतये नमोनमःकृत्स्नायतया ।1191। नमःकृत्स्नायतया धावते सत्त्वनाम्पतये नमोनमः सहमानाय निव्व्याधिनऽआव्व्याधिनीनाम्पतये नमोनमो निषङ्गिणे ककुभायस्तेनानाम्पतये नमोनमो निचेरवे परिचरायारण्ण्यानाम्पतये नमोनमो व्वञ्चते ।।201। नमो व्वञ्चते परिवञ्चते स्तायूनाम्पतये नमोनमो निषङ्गिणऽइषुधिमते तस्क्कराणाम्पतये नमोनमः सृकायिब्भ्यो जिघा ` सद्रयोमुष्ष्णताम्पतये नमोनमोऽसिमद्रयो नक्तञ्चरद्रयो व्विकृन्तानाम्पतये नमः ।।211। नमऽउष्ऽणीषिणे गिरिचराय कुलुञ्चानाम्पतये नमोनमऽइषुमद्रयो धन्न्वायिब्म्य“श्च वो नमोनमऽआतन्न्वानेब्भ्यःपप्रतिदधानेब्म्य^श्च वो नमोनमऽआयच्छद्र्योस्यद्दश्च वो नमोनमोव्विसृजद्रयः।।221। नमो व्विसृजद्रयो व्विद्धयद्र“श्च वो नमोनमः स्वपद्भयो जाग्रद्र्यश्च वो नमोनमः शयानेब्भ्यऽआसीनेब्भ्य्च वोनमो नमस्तिष्ट्॒द्रयोधावद्वय^श्च वो नमोनमः सभाब्म्यः ।।23।। नमः सभाब्भ्यः सभापतिब्भ्य^श्च वो नमोनमो ऽ^वेब्भ्यो ऽशश्वपतिब्भ्य^श्चवो नमोनम “सुगम-श्राद्ध-विधि” 137 ऽआव्व्याधिनीब्भ्यो व्विविद्धयन्तीब्भ्यशथ्व वो नमोनम5उगणाब्भ्यस्तू _ हतीब्म्यशश्च वो नमोनमो गणेब्म्यः ।1241। नमो गणेब्भ्यो गणपतिब्भ्य*“श्च वो नमोनमो व््रातेब्भ्यो व्रातपतिब्भ्य^श्च वो नमोनमो गृत्सेब्म्यो गृत्सपतिब्भ्य^श्च वो नमोनमो व्विरूपेब्भ्यो व्विशश्वरूपेब्भ्य^श्च वो नमोनमः सेनाब्भ्यः ।।2511 नमः सेनाब्म्यः सेनानिब्भ्यAश्च वो नमोनमो रथिब्भ्योऽअरथेब्भ्यशः्च वो नमोनमः क्षत्तृब्म्यः सङ्ग्रहीतृब्भ्यशश्च वो नमोनमो महद्भ्यो 5अर्ब्मकेब्म्य“श्च वो नमः ।।261। नमस्तक्षब्म्यो रथकारेब्भ्यशश्च वो नमो नमः कुलालेब्भ्यः कर्म्मारिब्भ्यशश्च वो नमोनमो निषादेब्भ्यः पुञ्जिष्ठेब्भ्यशश्च वो नमोनमः श्श्वब्भ्यः ।1271। नमः श्वम्भ्यः *श्वपतिब्भ्य^श्च वो नमोनमो भवाय च रुद्राय च नमः शर्व्वाय च पशुपतये च नमोनीलग्ग्रीवाय च शितिकण्ठाय च नमः कपर्दिने ।।28।। नमः कपर्हिने च व्वयुण्तकेशायच च नमः सहस्नाक्षाय च शतधन्न्वने च नमो गिरिशयाय च शिपिविष्ट्राय च नमो मीढुष्टमाय चेषुमते च नमो हस्वाय ।(29।। नमो हस्वाय च व्वामनाय च नमो बृहते च व्वर्षीयसे च नमोव्वृद्दधाय च सवृधे च नमोऽग्याय च पथमाय च नमऽआशवे ।1301। नमऽआशवे चाजिराय च नमः शीग्र्याय च शीब्भ्याय च नमऽऊरम्म्याय चावस्वन्न्याय च नमोनादेयाय चद्द्वीप्याय च ।।311। नमो ज्ज्येष्ट्राय च कनिष्ट्राय च नमः पूर्व्वजाय चापरजाय च नमो मद्धूयमाय चापगल्भाय च नमो जघन्न्याय च बुध्याय च नमः सोब्भ्याय ।।32।। नमः सोब्भ्याय ग्रतिसर्य्याय च नमो याम्म्याय च क्षेम्म्याय च नमः शश्लोक्क्याय चावसान्न्याय च नमऽउर्व्वय्याय च खल्ल्याय च नमो व्वन्न्याय ।33।। नमो व्वन्न्याय च कक्ष्याय च नमः श्श्रवाय च प्रतिश्रवाय च नमऽआशुषेणाय चाशुरथाय च नमः “सुगम-श्राद्ध-विधि” 138 शूराय चावभेदिने च नमो बिल्म्मिने ।34।। नमो बिल्म्मिने च कवचिने च नमो व्य्मिणे च व्वरूथिने च नमः श्श्रुताय च श्रुतसेनाय च नमोदुन्दुब्भ्याय चाहनन्न्याय च नमो धृष्ष्णवे ।।35।। नमो धृष्ष्णवे च प्रमृशाय च नमो निषङ्गिणे चेषुधिमते च नमस्तीक्ष्णेषवे चायुधिने च नमः स्वायुधाय च सुधन्न्वने च 1136 1। नमः स्रुत्याय च पत्थ्याय च नमः काट्टयाय च नीप्याय च नमः कुल्ल्याय च सरस्याय च नमो नादेयाय च व्यैशन्ताय नमः कूप्याय ।।37।। नमः कूण्याय चावट्याय च नमो ववीद्द्धयाय चातप्पयाय च नमो मेग्ध्याय च व्विद्दयुत्याय च नमो ववर्ष्याय चाव्वर्ष्याय च नमो व्वात्त्याय ।68।। नमो व्वात््याय च रेष्म्याय च नमो वास्तव्याय च व्वास्तुपाय च नमः सोमाय च रुद्राय च नममस्ताम्प्राय चारुणाय च नमः शब्गवे ।।39।। नमः शङ्गवे च पशुपतये च नमऽउग्ग्राय च भीमाय च नमोऽग््रेवधाय च दूरेवधाय च नमोहन्त्रे च हनीयसे च नमो कृक्षेब्भ्यो हरिकेशेब्भ्यो नमस्ताराय ।॥40।। नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नमः शङ्कराय च मयस्क्वराय च नमः शिवाय च शिवतराय च ।॥411। नमः पार्य्याय चावार्य्याय च नमः ग्रत्तरणाय चोत्तरणाय च नमस्तीर्थ्याय च कूल्याय च नमः शष्प्याय च फेन्याय च नमः सिकत्त्याय ।॥42।। नमः सिकत्त्याय च प्रवाह्याय च नमः कि _ शिलाय च क्षयणाय च नमः कपर्दिने च पुलस्तये च नमऽइरिण्ण्याय च प्रपत्थ्याय च नमो व्वज्ज्याय ।।43।। नमो व्वज्ज्याय च गोष्ठ्याय च नमस्तल्प्याय च गोस्य्याय च नमो हृदय्याय च निवेष्याय च नमः काट्ट्याय च गहरेष्ठाय च नमः शुष्क्याय ।।441। नमः शुष्क्याय च हरित्त्याय च नमः पा _ सव्याय च रजस्याय च नमो लोण्यायचोलप्याय च नमऽऊर्ळ्याय च सूर्ळ्याय च नमः पर्ण्णाय ।45॥। “सुगम-श्राद्ध-विधि” 139 नमः पर्ण्णाय च पर्ण्णशदाय च नम9्उदुरमाणाय चाभिघ्नते च नमऽआखिदते च प्रखिदते च नमऽइषुकृद्रयो धनुष्कृद्र्यश्च्च वो नमो नमो वः किरिकेब्भ्यो देवाना ` हृदयेब्भ्यो नमो व्विचिन्न्वत्केब्म्यो नमो व्वक्षिणत्केब्भ्यो नमऽआनिर्हतेब्भ्यः ।।461। द्रापेऽअन्धसस्प्पते दरिद्र नीललोहित । आसाम्प्रजानामेषाम्पशूनाम्मा भैर्म्मारोङ्मो च नः किञ्चनाममत्‌ ।।471। इमारुद्राय तवसे कपहिने क्षयद्द्वीराय प्प्रभरामहेमतीः । यथा शमसद्द्विपदे चतुष्पदे व्विश्वम्पुष्टृङ्ग्रामे ऽअस्म्मित्ननातुरम्‌ ।॥48।। या ते रुद्र शिवा तनूःशिवा व्विश्श्वाहा भेषजी। शिवारुतस्य भेषजी तया नो मृडजीवसे ।।49।। परि नो रुद्रस्यहे तिव्वृणक्तु परित्वेषस्य दुर्म्मतिरधायोः। अवस्त्थिरामघवद्रू यस्तनुष्ष्वमीहूवस्तोकाय तनयायमूड ।।501। मीढुष्ट्रमशिवतमशिवो नः सुमनाभव । परमे ववृक्षऽआयुधन्निधायकृत्तिम्व्वसान आचरपिनाकम्बिब्प्रदागहि ।।511। व्विकिरिद्र व्विलोहित नमस्तेऽअस्तु भगवः। यास्ते सहस्र _ हेतयोऽन्न्यमस्म्मन्निव पन्तुताः।।52।। सहस्राणि सहस्रशो बाहोस्तव हेतयः। तासामीशानो भगवः पराचीनामुखाकृथि ।।53।। असङ्ख्याता सहस्राणि ये रुट्राऽअधि भूम्म्याम्‌ । तेषा, सहस्र योजनेऽवधन्न्वानि तन्न्मसि ।।541। अस्म्न्न्महत्त्य्ण्णवे ऽन्तरिक्षे भवाऽअधि । तेषा सहस्रयोजनेऽवधन्न्वानि तन्न्मसि ।।55।। नीलग्ग्रीवाः शितिकण्ठा दिव _ रुद्राऽउपश्पश्रिताः । तेषा सहस्रयोजनेऽवधन्न्वानि तन्न्मसि 115611 नीलग्ग्रीवाः शितिकण्ठाः शर्व्वाऽअधः क्षमाचराः। तेषा सहस्रयोजने ऽवधन्न्वानि तन्न्मसि ।।571। येव्वृक्षेषु शष्ष्पिञ्जरा नीलग्ग्रीवा व्विलोहिताः। तेषा सहस्र योजनेऽवधन्न्वानि तन्न्मसि ।।581। ये भूतानामधिपतयो व्विशिखासः कपर्दिनः। तेषा , सहस्रयोजनेऽवधन्न्वानि तन्न्मसि ।।59।। ये पथाम्पथिरक्षयऽऐलबृदाऽआयुर्य्युधः । तेषा _ “सुगम-श्राद्ध-विधि” 140 सहस्रयोजने ऽवधन्न्वानि तन्न्मसि ।॥60॥। ये तीर्त्यानि प्प्रचरन्ति सृकाहस्ता निषङ्गिणः । तेषा . सहस्रयोजने ऽवधन्न्वानि तन्न्मसि ।।611। येन्नेषु व्विविद्धयन्ति पात्रेषु पिबतो जनान्‌ । तेषा, सहस्रयोजनेऽवधन्न्वानि तन्न्मसि ।॥62।। यऽएतावन्त*श्च भूया _ सश्श्च दिशो रुद्राव्वितस्थिरे । तेषा . सहस्रयोजनेऽवधन्न्वानितन्न्मसि ।63।। नमोऽस्तुरुद्रेब््यो ये दिवि येषां व्वर्षमिषवः । तेब्भ्यो दश प्राची्हश दक्षिणा दश प्रतीचीईशोदीचीईशोर्द्धवा: । तेब्भ्यो नमोऽअस्तु ते नोऽवन्तु तेनोमृडयन्तु तेयन्द्िष्ममो यश्च नोदूद्वेष्टि तमेषाञ्जम्भेदद्धमः।।641। नमो 5स्तुरुद्रेब्म्यो येऽन्तरिक्षयेषां व्वातऽइषवः। तेब्भ्यो दशप्प्राचीईश दक्षिणादशप्प्रतीचीर्दशोदीचीईशो्वाः । तेब्म्यो नमोऽअस्तु तेनोऽवन्तु ते नोमृडयन्तु ते यन्दिष्म्मो यशश्च नोदूद्वेष्ट्रि तमेषाञ्जम्भेदद्धमः ।।65।। नमोऽस्तु रुद्रेब्म्यो ये पृथिव्व्या येषामन्नमिषवः । तेब्भ्यो दश प्राचीईश दक्षिणा दश प्रतीचीदशोदीची्शोर्छवाः । तेब्भ्यो नमो ऽअस्तु तेनोऽवन्तु ते नो मृडयन्तु ते यन्दिष्म्मो यशश्च नोदूद्वेष्टि तमेषाञ्जम्भे दद्मः ।166।। बहुत लोगों का प्रश्न होता है कि श्राद्ध करने से मृतात्मा को स्वर्ग या मोक्ष की प्राप्ति होती है । इसका उत्तर ये है कि श्राद्धकर्म के संकल्प में प्रेतत्व विमुक्ति पद का प्रयोग किया जाता है जिसका तात्पर्य ये होता है कि मृतात्मा के प्रेतत्त्व से मुक्ति के लिए यह श्राद्ध करता हूँ, फिर स्वर्ग अथवा मोक्ष मिलने की चर्चा कैसे उठ सकती है । अर्थात्‌ विधि पूर्वक किये गए श्राद्ध से मृतात्मा को प्रेतयोनि से मुक्ति मिलती है और तदुपरांत वह जीव अपने कमों के अनुसार स्वर्ग नरक व विभिन्न योनियों में भ्रमण करता है। पुनः शंका होती है कि उत्सर्ग (दान) तो मृतात्मा के स्वर्गकामना से किया जाता है; तो स्वर्ग की प्राप्ति होनी चाहिए । “सुगम-श्राद्ध-विधि” 141 लेकिन स्वर्गकामना से उत्सर्ग करने का शास्त्रीय व्याख्या इस प्रकार है कि - प्रेतत्व से मुक्ति मिलने के बाद जीवात्मा जिस किसी भी योनि को प्राप्त हो उसी योनि में तदनुसार उत्सर्ग को गई वस्तु का आहारादि ख्प में उसे प्राप्त होना ही स्वर्गकाम है । जैसे माता अन्नादि अनेक वस्तु ग्रहण करती है और बच्चे को वह दूध के रूप में प्राप्त होता है । वृक्ष प्रकृत्ति से जल, वायु, धूप आदि ग्रहण कर हमें सुगन्धित फूल, फलादि प्रदान करते हैं, मधुमक्खी फूलों-फलों का रस ग्रहण कर उसे मधु के रूप में प्रदान करते हैं। अर्थात्‌ हम देखते हैं कि जीवों द्वारा अनेक प्रकार से ग्रहण की हुई वस्तु अन्य को रूपान्तरित होकर प्राप्त होती है, ठीक उसी प्रकार श्राद्ध कर्ता के द्वारा स्वर्गकाम से जो-जो उत्सर्ग किये जाते हैं; उसे ग्रहण तो ब्राह्मण करते हैं पर वो समस्त वस्तुएं रूपान्तरित होकर मृतात्मा को उसके योनि के अनुसार प्राप्त होता है। जैसे मां के द्वारा ग्रहण किये गए अन्न-जलादि को दुग्ध रूप में परिवर्तित होते हुए, मधुमक्खियों के द्वारा ग्रहण किये गए रसों को मधु में रूपान्तरित होते हुए, वृक्षों द्वारा ग्रहण किये गए जलादि को फूलों-फलों में रूपान्तरित होते हुए हम नहीं देख पाते; उसी तरह मृतात्मा के निमित्त किये गए उत्सर्ग वस्तुओं को भी हम रूपान्तरित होते हुए नहीं देख सकते । नाममन्त्रास्तथा देशा भवान्तरगतानपि । प्राणिनः प्रीणयन्त्येते तदाहारत्वमरगतान्‌ ।। देवो यदि पिता जातः शुभकर्मानुयोगतः । तस्यान्नममृतं भूत्वा देवत्वेऽप्यनुगच्छति ।। गान्धर्वे भोगरूपेण पशुत्वे च तृणं भवेत्‌ । श्राद्धान्नं वायुरूपेण नागत्वेऽप्युपगच्छति ।। पानं भवति यक्षत्वे राक्षसत्वे तथामिषम्‌ । दनुजत्वे तथा मद्यं प्रेतत्वे रुधिरोदकम्‌ ।। प्रायः लोगों का वक्तव्य होता है कि हमारे पूर्वज (दादा-परदादा आदि) करते आए हैं, जिसका निर्वहण हम भी करते हैं। अर्थात्‌ श्रद्धा व विश्वास नहीं है । यह विडम्बना नही तो और क्या है ? कर्म कर भी रहे हैं लेकिन श्रद्धा-विश्वास भी नहीं रखते । जबकि वस्तु-विधि की अपेक्षा श्रद्धा-विश्वास कहीं अधिक “सुगम-श्राद्ध-विधि” 142 अपेक्षित है । श्रद्धा-विश्वास से रहित किया गया सभी कर्म निष्फल हो जाता है। भली भांति श्राद्ध करने से पितर गण प्रसन्न होकर आशीर्वाद देते हैं और विधिहीन, अश्रद्धा आदि से श्राद्ध करने पर तृप्त नहीं होते तो निराश होकर अतृप्त पितर श्राप भी देते हैं । “ पितरस्तस्य शापं दत्त्वा प्रयान्ति च ॥ - नागरखण्ड अतः श्रद्धापूर्वक सामर्थ्यानुसार पितरों को श्राद्ध करके तृप्त करने का प्रयत्न अवश्य करना चाहिए । न च वीराः प्रजायन्ते नाऽरोगाः न शतायुषः । न च श्रेयांसि वर्तन्ते यत्र श्राद्धं विवर्जितम्‌ ।। हारीतस्मृति आयुः प्रजां धनं विद्यां स्वर्गं मोक्षं सुखानि च । प्रयच्छन्ति तथा राज्यं नृणां प्रीताः पितामहाः।। याज्ञवल्क्य आयुः पुत्रान्‌ यशः स्वर्ग कीतिं पुष्टिं बलं श्रियं। पशूं सौख्यं धनं धान्यं प्राप्नुयात्‌ पितृपूजनात्‌।। यमस्मृति पिता ददाति सत्पुत्रान्‌ गोधनानि पितामहः । धनदाता भवेत्सोऽपि यस्तस्य पितामहः ।। दद्याद्विपुलमत्राद्यं वृद्धस्तु प्रपितामहः । तृप्ताः द्धेन ते सर्वे दत्त्वा पुत्रस्य वाञ्छितम्‌ ।। गच्छन्ति धर्ममार्गैश्च धर्मराजस्य मन्दिरम्‌ । तत्र धर्मसभायां ते तिष्ठन्ति परमादरात्‌ ।। गरुडपुराण ।। ॐ शान्तिः । शान्तिः । शान्तिः ।। जन्मपत्री, कुण्डली मिलान एवं अन्य ज्योतिषीय परामर्श के लिए सम्पक करें - 9279259790 . जन्मपत्री (एक पृ.) - दक्षिणा : जन्मपत्रिका - दक्षिणा : सप्तवर्गी जन्मपत्रिका - दक्षिणा : कुण्डली मिलान - दक्षिणा : प्रश्‍न विचार - दक्षिणा : ज्योतिषीय परामर्श - (दक्षिणा रहित) भूमि परीक्षा - दक्षिणा : “सुगम-श्राद्ध-विधि” जन्मपत्री बनवाएं 551/ रु. 1151/ रु. 1551/ रु. 551/ रु. 1151/ रु. 1151/ रु. “सुगम-श्राद्ध-विधि” संपादक : वैदेही पंचांग पं0 अजय मिश्रा (ज्योतिषाचार्य)